इस्लाम शांति का धर्म है

इस्लाम शांति का धर्म है

इस्लाम शांति का धर्म है

الإسلام دين السلام باللغة الهندية

 

लेखक:

डॉ अब्दुर रहमान बिन करीम शीहा

د/ عبد الرحمن بن عبد الكريم الشيحة

अनुवादक:

EUROPEAN ISLAMIC RESEARCH CENTER (EIRC)

المركز الأوروبي للدراسات الإسلامية

& अताउर रहमान बिन मुज़फ्फर हुसैन

सन्शोधन:

ज़करिया फैज़ी मुज़फ्फर हुसैन

 

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इस्लाम शांति का धर्म है

بسم الله الرحمن الرحيم

सारी प्रशंसाये अल्लाह के लिए है जो सारे संसारों का पालनहार है और रहमत तथा सलाम हो हमारे नबी मोहम्मद(:) और उनके ऑल सहाबा पर

भूमिका

इस्लाम का सूर्योदय होने से पूर्व यह धरती ऐसा टूकड़ा था जिसमें खूनी युद्ध भड़की हुई थी जिसने लाखों लोगों को निगल लिया था और अमन शांति का शब्द मानव शब्दकोश से गायब कर दिया था जब हम केवल अकेले यूरोप महादेश को देखते हैं तो हमें ज्ञात होता है कि उसके देशों की सीमाएं एक दिन भी अपने स्थान (जगह) नहीं रही प्रत्येक देश दूसरे पर दुर्व्यवहार करता,उन पर वित्तीय कर (tax) लागू करता, जो युद्ध विराम और राजकीय प्रतीक होता

इंसानों में रंग,पीढ़ी,धर्म,समूहीकरण और सांसारिक रुचियों के आधार पर एक दूसरे में घृणा फैल गई थी मानव जीवन की पवित्रता का कोई सम्मान नहीं था, चाहे वह युद्ध करने वाले हो या शांति बनाने वाले नागरिक हो, कैदियों के अधिकारों का कोई सम्मान नहीं था, पानी की तरह उनका खून बहाया जाता था लोगों की संपत्ति और आदर का कोई सम्मान नहीं था, उनके धन और महिलाएं लूट लिए जाते और उनके पुत्रों को कैदी बनाकर दास मंडियों में बेज दिया जातामानवता वैश्विक शांति और स्थिरता से अनजान थी, अगर जानती थी तो केवल युद्ध, आतंक, आतंकवादी, उपनिवेशवाद, उत्पीड़न और लोगों को गुलाम बनाना

इस्लाम से पहले लोगों को यह नहीं पता था कि विश्वासों (अकीदो) में स्वतंत्रता का आधार क्या होता है? और यह कि हर व्यक्ति अपना धर्म अपनाने में स्वतंत्र भी होता हो सकता है लोगों के यहां आम नियम यही था कि वह अपने राजाओं के धर्म पर होते हैं

यही कारण है कि बिज़िन्तिन सम्राटों में से किसी को भी अनुमति नहीं थी कि वह फारसी विद्रोही सम्राट के धर्म को अपनाएं अन्यथा उसे एक गद्दार मान लिया जाता है, इसी तरह फारसी सम्राटों में से किसी भी व्यक्ति को अनुमति नहीं थी कि वह फारसी सम्राट धर्म को छोड़कर कोई और धर्म अपनाएं, ऐसी स्थिति में उसे गद्दार मान कर मार दिया जाता मामला यहां तक पहुंच चुका था कि एक ही धर्म में विश्वास करने वालों में घृणा फैल चुकी थी जिसने रूढ़िवादी, कैथोलिक, और अन्य ईसाई सांप्रदायिको के बीच धार्मिक युद्ध भड़का दी थी नियम यह था कि हर वह व्यक्ति जो आपके साथ असहमत हैं आप उसे आतंकवाद, नास्तिक और गद्दार कहेंगे जिसे मार डालना या कैदी बनाना अनिवार्य हैI

पैगंबर मोहम्मद (:) भूमि पर अन्याय, अत्याचार और अल्लाह के साथ र्शिक की स्थिति को बयान करते हुए फरमाया:

"إنَّ اللهَ أتى أهلَ الأرضِ قبْلَ أنْ يبعَثَني فمقَتهم عرَبَهم وعجَمَهم إلَّا بقايا مِن أهلِ الكتابِ" صحيح ابن حبان.

"अल्लाह ताला ने मुझे भेजने से पहले धरती के लोगों को देखा तो, उनके अरब अजम पर नाराज हुआ सेवाऐ अहले किताब यहूदी और ईसाई के (कुछ तौहीद पर बाकी रहने वाले लोगों के)

यही कारण है कि इस्लाम पूरी दुनिया में शांति का संदेश लेकर आया, और आम नागरिकों पर अत्याचार,क्रूरता को प्रतिबंधित कियाI यहां तक कि कैदियों के अधिकारों को भी स्पष्ट कर दिया और यह सब जिनेवा कन्वेंशन जो साल 1400 को हुआ, उससे पहले हुआ, इस्लाम ने न्याय और समानता का आदेश दिया और घृणित पुर्वाग्रह जो रंग, पीढ़ी और राष्ट्रीयता पर आधारित था,उसे समाप्त कियाI अधिकारियों के हिंसा की आलोचना की,जो अपनी जनता पर जबरन अपना धर्म लागू करते, और उन तक तौहीद और इस्लाम का संदेश पहुंचने के रास्ते में बाधित हुआ करते थेI इसी प्रकार इस्लाम ने लोगों के जान उनके धन और उनके सम्मानों पर हस्तक्षेप को प्रतिबंधित कर के सभी के अधिकारों को सुरक्षित कर दियाI

इसी प्रकार वह गैर मुस्लिम जो इस्लामी राज्य में रहते हैं, उन पर भी कुछ दायित्व डाल दिए,समझोतो (संधी) का सम्मान करना अनिवार्य किया और धोखा,विश्वास घातक और पाखंड को प्रतिबंधित कियाI

निम्नलिखित अध्यायों में हम अल्लाह के आदेश से इन सभी वस्तुओं का वर्णन विस्तार से करेंगेI अल्लाह ताला से प्रार्थना है कि इस पुस्तिका को हर उस व्यक्ति के लिए उपयोगी बनाएं जो अल्लाह का धर्म इस्लाम को जानना चाहता है और उसके सीने (छाती) को इस्लाम के लिए खोल दे आमीन I

 

 

इस्लाम का अर्थ

हमारे सम्मानीय पाठक के लिए इस्लाम में सुरक्षा का अर्थ स्पष्ट करने से पहले,यह आवश्यक है कि उसे शब्द "इस्लाम" का अर्थ मालूम हो। इसलिए कि "इस्लाम" एक एैसा शब्द है जो अपने अंदर बहुत सारे विचार स्विच किए हुए हैं। जो मानव को संतुष्टि, आराम और मनुष्य गुलामी से मुक्त होने का भावना दिलाती है,

 इस्लाम का अर्थ यह है कि:

इस्लाम आध्यात्मिक और शारीरिक रूप में सर्वशक्तिमान ईश्वर के सामने झुक जाने, और विनम्रता अपनाने का नाम है। वह इस प्रकार की उसके आदेशों का पालन किया जाए और उसकी न्यायपालिका को स्वीकार किया जाए।

अल्लाह सर्वशक्तिमान ने इब्राहीम अलैहिस सलाम का बयान का वर्णन करते हुए :कहा

" إِذْ قَالَ لَهُ رَبُّهُ أَسْلِمْ قَالَ أَسْلَمْتُ لِرَبِّ الْعَالَمِينَ " البقرة آيه: 131

"जब उनसे उनके परवरदिगार ने कहा इस्लाम कुबूल करो तो अर्ज़ कि में सारे जहाँ के परवरदिगार पर इस्लाम लाया"

 

यही वह असली इस्लाम है जिसे हर मुसलमान को अपनाना चाहिए।

अल्लाह का फरमान है:

"قُلْ إِنَّ صَلَاتِي وَنُسُكِي وَمَحْيَايَ وَمَمَاتِي لِلَّهِ رَبِّ الْعَالَمِينَ " الأنعام آية: 162

( रसूल) तुम उन लोगों से कह दो कि मेरी नमाज़ मेरी इबादत मेरा जीना मेरा मरना सब ख़ुदा ही के वास्ते है जो सारे जहाँ का परवरदिगार है"

इसी प्रकार (अस्सलाम) "السلام" स्वर्ग के नामों में से एक नाम भी है

अल्लाह का फरमान है:

" لَهُمْ دَارُ السَّلَامِ عِنْدَ رَبِّهِمْ وَهُوَ وَلِيُّهُمْ بِمَا كَانُوا يَعْمَلُونَ " الأنعام: 127

उनके वास्ते उनके परवरदिगार के यहाँ अमन चैन का घर (बेहश्त) है और दुनिया में जो कारगुज़ारियाँ उन्होने की थीं उसके ऐवज़ ख़ुदा उन का सरपरस्त होगा

इसी तरह स्वर्ग वासियों का एक दूसरे में "السلامअस्सलाम" उपहार होगा।

अल्लाह ताला मुझे और आपको उनमें से बनाएं आमीन।

अल्लाह का फरमान है:

" تَحِيَّتُهُمْ يَوْمَ يَلْقَوْنَهُ سَلَامٌ وَأَعَدَّ لَهُمْ أَجْرًا كَرِيمًا " الأحزاب: 44

जिस दिन उसकी बारगाह में हाज़िर होंगे (उस दिन) उनकी मुरादात (उसकी तरफ से हर क़िस्म की) सलामती होगी और खुदा ने तो उनके वास्ते बहुत अच्छा बदला (बेहश्त) तैयार रखा है

 

इसी प्रकार अस्सलाम मुसलमानों का आपस में "सलाम| है।(السلام عليكم ورحمه الله وبركاته) आप पर शांति,दया और आशीष हो।

कितना!उत्कृष्ट (बेहतरीन) सलाम और मधुर शब्द है। यह एक एैसा उपहार है, कि जब उसे प्रस्तुत किया जाता है, और सुना जाता है तो यह दिल में निकटता उत्पन्न करता है, घृणा और नफरत को नष्ट करके आत्मनियंत्रण और संतुष्टि प्रदान करता है। यही कारण है कि इस्लाम वास्तव में शांति और सुरक्षित रूप में गिना जाता है। और अल्लाह के "दूत" ने इसे ईमान को पूरा करने के मुद्दों में उल्लेख किया है।

इसलिए कहा है कि:"तुम तब तक स्वर्ग नहीं जा सकते जब तक ईमान ना लाओ, और ईमानदार नहीं होगे जब तक एक दूसरे से प्यार नहीं करते, और मैं तुमको बताऊं कि क्या करने से एक दूसरे से प्यार करने लगोगे, (बस इसके लिए) सलाम को फैलाओ। (मुस्लिम शरीफ) इसे अल्लाह के दूत ने सर्वश्रेष्ठ कार्यों के रूप में घोषित किया, जब आप (:) से पूछा कि इस्लाम में क्या कार्य बेहतर है? कहा कि तुम खाना खिलाओ और जो परिचित हो और जो अपरिचित हो, सलाम करो (मुस्लिम,बुखारी)

इस्लाम आया है ताकि लोगों को मार्गदर्शन करें, अंधकार से प्रकाश की ओर, गुलामी से निकालकर गुलामों के रब की गुलामी की ओर ले जाएं।

जो कोई व्यक्ति इस्लाम का अनुसरण करेगा, शुद्ध इरादों के साथ अल्लाह को संतुष्ट (खुश) करने वाले कार्य करेगा,जल्द ही अल्लाह उसे सुरक्षा के मार्ग की ओर मार्गदर्शन करेगा और उसे सीधा रास्ता दिखाएगा।

अल्लाह का फरमान है:

" يَا أَهْلَ الْكِتَابِ قَدْ جَاءَكُمْ رَسُولُنَا يُبَيِّنُ لَكُمْ كَثِيرًا مِمَّا كُنْتُمْ تُخْفُونَ مِنَ الْكِتَابِ وَيَعْفُو عَنْ كَثِيرٍ قَدْ جَاءَكُمْ مِنَ اللَّهِ نُورٌ وَكِتَابٌ مُبِينٌ (15) يَهْدِي بِهِ اللَّهُ مَنِ اتَّبَعَ رِضْوَانَهُ سُبُلَ السَّلَامِ وَيُخْرِجُهُمْ مِنَ الظُّلُمَاتِ إِلَى النُّورِ بِإِذْنِهِ وَيَهْدِيهِمْ إِلَى صِرَاطٍ مُسْتَقِيم ٍ " المائدة آيه: 15-16

" अहले किताब तुम्हारे पास हमारा पैगम्बर (मोहम्मद सल्ल) चुका जो किताबे ख़ुदा की उन बातों में से जिन्हें तुम छुपाया करते थे बहुतेरी तो साफ़ साफ़ बयान कर देगा और बहुतेरी से (अमदन) दरगुज़र करेगा तुम्हरे पास तो ख़ुदा की तरफ़ से एक (चमकता हुआ) नूर और साफ़ साफ़ बयान करने वाली किताब (कुरान) चुकी है

जो लोग ख़ुदा की ख़ुशनूदी के पाबन्द हैं उनको तो उसके ज़रिए से राहे निजात की हिदायत करता है और अपने हुक्म से (कुफ़्र की) तारीकी से निकालकर (ईमान की) रौशनी में लाता है और राहे रास्त पर पहुंचा देता है"

इस्लाम वास्तव में सुरक्षा का धर्म है

उन तमाम जानकारी के साथ जो शब्द इस्लाम में पाया जाता है। क्योंकि अल्लाह के रसूल (:) ने कहा है:मुस्लिम वह व्यक्ति है, जिसके भाषा (ज़ुबान) और हाथ से अन्य मुसलमान सुरक्षित हो, और मुहाजीर वह जो हर उस चीज को छोड़ दें, जिससे अल्लाह ने मना किया है।(बुखारी मुस्लिम)

रसुलुल्लाह (:) का फरमान है: मोमिन वह है जिसे लोग अपने खून और धन वा माल का अमीन बनाएं।

क्या इस्लाम जबरदस्ती विस्तार हुआ है?

इस्लाम की मूल शिक्षाएं इस प्रकार की आरोपों (आलोचनाओं) को समाप्त कर देती हैंو जो इस्लाम से नफरत करने वालों की ज़ुबानों पर घूमती रहती हैं

अल्लाह का फरमान है:

"لَا إِكْرَاهَ فِي الدِّينِ قَدْ تَبَيَّنَ الرُّشْدُ مِنَ الْغَيِّ فَمَنْ يَكْفُرْ بِالطَّاغُوتِ وَيُؤْمِنْ بِاللَّهِ فَقَدِ اسْتَمْسَكَ بِالْعُرْوَةِ الْوُثْقَى لَا انْفِصَامَ لَهَا وَاللَّهُ سَمِيعٌ عَلِيمٌ” البقرة آيه: 256

"दीन में किसी तरह की जबरदस्ती नहीं क्योंकि हिदायत गुमराही से (अलग) ज़ाहिर हो चुकी तो जिस शख्स ने झूठे खुदाओं (बुतों) से इंकार किया और खुदा ही पर ईमान लाया तो उसने वो मज़बूत रस्सी पकड़ी है जो टूट ही नहीं सकती और ख़ुदा सब कुछ सुनता और जानता है"

अल्लाह का फरमान है:

"وَلَوْ شَاءَ رَبُّكَ لَآمَنَ مَنْ فِي الْأَرْضِ كُلُّهُمْ جَمِيعًا أَفَأَنْتَ تُكْرِهُ النَّاسَ حَتَّى يَكُونُوا مُؤْمِنِينَ" (يونس:(99

"और ( पैग़म्बर) अगर तेरा परवरदिगार चाहता तो जितने लोग रुए ज़मीन पर हैं सबके सब ईमान ले आते तो क्या तुम लोगों पर ज़बरदस्ती करना चाहते हो ताकि सबके सब ईमानदार हो जाएँ हालॉकि किसी शख़्स को ये एख्तेयार नहीं"

अल्लाह का फरमान की:

" وَقُلِ الْحَقُّ مِنْ رَبِّكُمْ فَمَنْ شَاءَ فَلْيُؤْمِنْ وَمَنْ شَاءَ فَلْيَكْفُر. " (الكهف:29)

"और ( रसूल) तुम कह दों कि सच्ची बात (कलमए तौहीद) तुम्हारे परवरदिगार की तरफ से (नाज़िल हो चुकी है) बस जो चाहे माने और जो चाहे माने"

अल्लाह का फरमान है:

"فَإِنْ تَوَلَّوْا فَإِنَّمَا عَلَيْكَ الْبَلَاغُ الْمُبِينُ" النحل آيه: 82"

"तुम उसकी फरमाबरदारी करो उस पर भी अगर ये लोग (ईमान से) मुँह फेरे तो तुम्हारा फर्ज सिर्फ (एहकाम का) साफ पहुँचा देना है"

अल्लाह का फरमान है:

(الغاشية) "فَذَكِّرْ إِنَّمَا أَنْتَ مُذَكِّرٌ (21) لَسْتَ عَلَيْهِمْ بِمُصَيْطِرٍ (2)"

"तो तुम नसीहत करते रहो तुम तो बस नसीहत करने वाले हो

तुम कुछ उन पर दरोग़ा तो हो नहीं"

इस अर्थ में और बहुत सी आयते कुरआनी है। इसका कारण यह है कि इस्लाम एक विश्वास (अकीदा) है। और विश्वास के लिए दिल (अंतरात्मा) की पुष्टि जरूरी है केवल ज़ुबान (मुंह) से बोल देनापर्याप्त (काफी) नहीं है। और दिल (अंतरात्मा) की पुष्टि मजबूरन नहीं करवाया जा सकता। यही कारण है कि, बावजूद यह कि इंसान अपनी जुबान से कुछ कह रहा है जो दिल (हृदय) के साथ उसका विश्वास नहीं करता है।

अल्लाह का फरमान है:

"مَنْ كَفَرَ بِاللَّهِ مِنْ بَعْدِ إِيمَانِهِ إِلَّا مَنْ أُكْرِهَ وَقَلْبُهُ مُطْمَئِنٌّ بِالْإِيمَانِ وَلَكِنْ مَنْ شَرَحَ بِالْكُفْرِ صَدْرًا فَعَلَيْهِمْ غَضَبٌ مِنَ اللَّهِ وَلَهُمْ عَذَابٌ عَظِيمٌ "النحل آيه: 106

"और हक़ीक़त अम्र ये है कि यही लोग झूठे हैं उस शख्स के सिवा जो (कलमाए कुफ्र) पर मजबूर किया जाए और उसका दिल ईमान की तरफ से मुतमइन हो जो शख्स भी ईमान लाने के बाद कुफ्र एख्तियार करे बल्कि खूब सीना कुशादा (जी खोलकर) कुफ्र करे तो उन पर ख़ुदा का ग़ज़ब है और उनके लिए बड़ा (सख्त) अज़ाब है"

 

 

क्या इस्लाम शक्ति के बल पर (विस्तार) फैला है?

प्रत्येक सिस्टम में एक ताकत (बल) का होना अनिवार्य है। जो उस प्रणाली (व्यवस्था) को सुरक्षित रखें, उसके कार्य नियम पर नजर रखें, और इन नियमों (उसूलों) का उलंघन करने वालों पर सजा लागू करें।

और यह शक्ति (ताकत) इस प्रणाली निज़ाम के कार्य नियम और उसके निरंतरता को सुनिश्चित करती है। उस्मान बिन अफ्फान (:) कहते हैं बेशक अल्लाह शासक द्वारा (कुछ लोगों को जो इस्लाम के खिलाफ काम करते हैं) रोकता है, जो कुरान द्वारा नहीं रोकता (इसे जरीर ने बयान किया है) और इसकी सनद हदीस मूनकाते हैं)

और प्रसिद्ध यही है कि यह उस्मान (:) का कथन (कौल) है।

हदीस का अर्थ यह है कि कभी-कभी कुछ लोग अपराध करने से इस कारण बचे रहते है,क्योंकि वह जानते हैं शासक उसे दंडित करेंगे।

जबकि कुरान का इस अपराध से निषेध करने और आख़िरत में दंडित किए जाने का उसे कोई भय नहीं। यही कारण है कि अल्लाह ने शासकों को अधिकार दिया है कि वह अपराधियों को दंड दे, ताकि लोगों को अपराधों से रोक सके।

निम्नलिखित पंक्तियों में हम संक्षेप मैं इस्लाम की शुरुआत का उल्लेख करते हैं

मुहम्मद (:)13 वर्ष मक्का में रहे और लोगों को नसीहत के माध्यम से इस्लाम की ओर आमंत्रित करते रहे।

उस समय के दौरान आप(:) और आप(:)के अनुयायो, समस्या, मुसीबतों का सामना करते रहे।

जुल्म सहते रहे, बात इस हद तक बढ़ गई कि आप(:) की कौम आपके ऊपर ईमान लाने वालों को दंडित करने लगे।

यदि आप (:) उनके पास से गुजरते हैं तो वह लोग इमान वालों को दंड दे रहे होते, और आप (:) उन्हें सब्र की तलक़ीन के सिवा कुछ ना कर पाते। आपका गुजर अम्मार बिन यासिर (:)और उनकी मां सुमैया(:) के पास से हुआ, उन्हें दंड दिया जा रहा था तो आपने कहा: कि "आले यासिर सब्र करो तुमसे जन्नत का वादा है"

यहां तक वह आप (:) को मारने और दीन की प्रचार से रोकने की साजिश करने लगे। और आप उनके लिए यही दुआ करते की हे

अल्लाह मेरी कौम के लोगों को माफ कर दे बेशक वह नहीं जानते हैं।

और आपका रब आपको कुछ आयत के माध्यम से धैर्य का उपदेश देता, आपको यह तसल्ली देते हैं कि आप के अलावा अन्य रसूल भी झूठलाए गए, उन्हें भी तकलीफें दी गई, इसलिए कि दीन के प्रचार का रास्ता अधिक लंबा और तकलीफदेह होता है, और यह सच और झूठ, अच्छे और बुरे के बीच एक जंग (युद्ध) होता है।

अल्लाह का फरमान है:

"فَاصْبِرْ كَمَا صَبَرَ أُولُو الْعَزْمِ مِنَ الرُّسُلِ وَلَا تَسْتَعْجِلْ" الأحقاف آيه: 35

"तो ( रसूल) पैग़म्बरों में से जिस तरह अव्वलुल अज्म (आली हिम्मत), सब्र करते रहे तुम भी सब्र करो और उनके लिए (अज़ाब) की ताज़ील की ख्वाहिश करो"

आप (:) हर साल मक्का आने वाले कबाईल (जनजातियों) के बीच स्वयं जाते।

यहां तक कि मदीने के कुछ लोग आप (:) पर ईमान लाए, और आप(:) के प्रति निष्ठा का वचन दिया, कि आप और आप पर ईमान लाने वाले यदि मदीना हिजरत करके आए तो वे उनकी मदद करेंगे, और उनकी रक्षा करेंगे। आप(:)मदीना की ओर हिजरत किए, और मक्का में बिताए हुए 13 सालों में आपने खून का एक बूंद तक नहीं बहाया बल्कि कुरैश ने आप और आपके संग हिजरत करने वाले मुसलमानों के धन और संपत्ति को रोक लिया। आपने लड़ाई का आदेश उस वक्त दिया जब मदीना में हिजरत के 2 वर्ष बीत गए, चारों ओर आपके शत्रु फैल रहे थे,जहां लोग आप (:) और आप (:)की दावते दीन की प्रचार के खिलाफ मौके की खोज में लगे थे। और आपने कभी भी स्वयं जंग का आगाज नहीं किया। जब कि "मदीना" शाम(सीरिया) की ओर जाने वाले कुरैशी व्यापारियों के रास्ते आता था। इसलिए पहली जंग उस वक्त हुआ, जब अल्लाह के रसूल कुरैश व्यापारियों की ओर निकले, ताकि उनकी आर्थिक पथ (हालत) को कमजोर करके उनको मजबूर कर सके कि वह आपकी दीन प्रचार में रुकावट ना बने,लोगों को इस्लाम की ओर आने से ना रोके।

आप (:) और आप पर ईमान लाने वालों को कष्ट ना दें और इसलिए भी कि जो धन आप(:)और आपके साथी का मक्का में लूटा गया था उसे वापस ले सकें। लेकिन वह कारवां अबू सुफियान के नेतृत्व में (जो कि अभी मुसलमान नहीं हुआ था) बच निकलने में सफल हो गया।

जब कुरैश को इस बात की जानकारी हुई तो, उन्होंने जंग की तैयारी शुरू कर दी, अपने लड़ाकों को तैयार किया और मोहम्मद (:) से जंग के लिए निकल गए, फिर इस्लाम का वह पहला जंग हुआ जिसमें आप(:)और आपके साथियों को विजय मिला

अल्लाह का फरमान है:

"أُذِنَ لِلَّذِينَ يُقَاتَلُونَ بِأَنَّهُمْ ظُلِمُوا وَإِنَّ اللَّهَ عَلَى نَصْرِهِمْ لَقَدِيرٌ (39) الَّذِينَ أُخْرِجُوا مِنْ دِيَارِهِمْ بِغَيْرِ حَقٍّ إِلَّا أَنْ يَقُولُوا رَبُّنَا اللَّهُ وَلَوْلَا دَفْعُ اللَّهِ النَّاسَ بَعْضَهُمْ بِبَعْضٍ لَهُدِّمَتْ صَوَامِعُ وَبِيَعٌ وَصَلَوَاتٌ وَمَسَاجِدُ يُذْكَرُ فِيهَا اسْمُ اللَّهِ كَثِيرًا وَلَيَنْصُرَنَّ اللَّهُ مَنْ يَنْصُرُهُ إِنَّ اللَّهَ لَقَوِيٌّ عَزِيزٌ (40) الَّذِينَ إِنْ مَكَّنَّاهُمْ فِي الْأَرْضِ أَقَامُوا الصَّلَاةَ وَآتَوُا الزَّكَاةَ وَأَمَرُوا بِالْمَعْرُوفِ وَنَهَوْا عَنِ الْمُنْكَرِ وَلِلَّهِ عَاقِبَةُ الْأُمُورِ." (الحج آيه: 39-40-41)

"जिन (मुसलमानों) से (कुफ्फ़ार) लड़ते थे चूँकि वह (बहुत) सताए गए उस वजह से उन्हें भी (जिहाद) की इजाज़त दे दी गई और खुदा तो उन लोगों की मदद पर यक़ीनन क़ादिर (वत वाना) है

ये वह (मज़लूम हैं जो बेचारे) सिर्फ इतनी बात कहने पर कि हमारा परवरदिगार खुदा है (नाहक़) अपने-अपने घरों से निकाल दिए गये और अगर खुदा लोगों को एक दूसरे से दूर दफा करता रहता तो गिरजे और यहूदियों के इबादत ख़ाने और मजूस के इबादतख़ाने और मस्जिद जिनमें कसरत से खुदा का नाम लिया जाता है कब के कब ढहा दिए गए होते और जो शख्स खुदा की मदद करेगा खुदा भी अलबत्ता उसकी मदद ज़रूर करेगा बेशक खुदा ज़रूर ज़बरदस्त ग़ालिब है"

बल्कि यह जान लेना ही काफी है, कि वह सभी जीत जो 23 वर्षों में आपको मिली, जो आपके नबी होने के बाद से लेकर मृत्यु तक की अवधि है, जिसमें आपने पूरे अरब को अपने अधीन कर लिया। इस पूरे समय में मुसलमान और काफिरों में से मृतकों की संख्या 375 से अधिक नहीं थी।

और इसी प्रकार आप(:)के साथी भी आप के नक्शे कदम पर चले, और उन्होंने अच्छे चरित्र, अच्छे उपचार और लोगों को दीन की ओर आमंत्रित करके देश-देश पर विजय प्राप्त की।

एक नव मुस्लिम जिसका नाम बशीर अहमद साद है, कहता है मुझे सबसे अधिक परेशान करने वाला प्रश्न यह है कि, हम ईसाई मानते हैं कि इस्लाम तलवार की जोर से फैला, तो मैंने अपने आप से प्रश्न किया कि यदि ऐसा है तो लोग क्यों इस्लाम स्वीकार करते हैं? अभी भी दुनिया के हर कोने में लोग इसे गले लगाते हैं, क्यों? हर देश में लोग इस धर्म को किसी भी प्रकार के मजबूरी या पुननिर्माण के बिना स्वीकार कर रहे हैं।

और फिर यह देखने के लिए कि क्या इस्लाम एकमात्र ऐसा धर्म है? जो अपने अनुयायियों को दीन को फैलाने और इसका बचाव करने के लिए सेना को तैयार करने का आदेश दिया।

तौरेत में इसका उल्लेख अध्याय 20 संख्या 10 और उसके बाद की संस्करण में किया गया है।

10-- जब आप किसी शहर के विरुद्ध लड़ने के लिए उसके पास आते हैं, तो पहले उसे सुलाह (शांति) का संदेश दें।

11-- यदि वह तुझे शांति का जवाब देता है और अपना द्वार आपके लिए खोल देता है तो वहां के सभी निवासी आप की सेवा करेंगे।

12-- यदि वह आपसे सुलाह ना करें बल्कि वह आपके विरुद्ध लड़ना चाहता है तो आपको उसे घेरना होगा।

13-- जब परमेश्वर तेरा खुदा उसे तेरे हाथ (कब्जे) में दे तो वहां के हर एक मर्द को तलवार से मार डालना।

14-- परंतु स्त्रियों और बच्चों और पशुओं को और उस शहर के सारी वस्तुओं को लूट कर रख लेना और तू अपने शत्रुओं के लूट के वह वस्तु जो तेरे खुदा ने तुम्हें दी है खाओ

15-- उन सब शहरों का यही हाल करना जो तुम्हारे बहुत दूर हैं और इन जातियों के शहर के नहीं

16-- परंतु उन जातियों के शहरों में जिनको परमेश्वर तेरा खुदा विरासत के रूप में देता है, किसी आत्मा को जीवित रखनाl

17-- परंतु तुम उन लोगों को नष्ट करोगे जैसे इमोरियो, कोघथियो, पारसियों, हिववियो, यबुसी को जैसा तेरे रब ने तुम को आज्ञा दी थी

इसी प्रकार इंजील (सुसमाचार मैथ्यू) के अध्याय 24 और 25, फिर इसके बाद यह लिखा गया है।

18-- कि यह मत सोचो कि मैं पृथ्वी पर (शांति) सुलह कराने आया हूं, सुलह कराने नहीं तलवार चलाने आया हूंl

19-- क्योंकि मैं लोगों को अपने बाप से और बेटी को उसकी मां से और बहू को अपनी सास से अलग करने आया हूंl

20-- मनुष्य के शत्रु उसके परिवार के लोग ही होंगेl

21-- जो कोई अपने पिता-माता को मुझसे अधिक प्यार करता है, वह मेरे योग्य नहीं, और यदि जो कोई बेटे या बेटी को मुझसे अधिक प्यार करता है वह मेरे योग्य नहीं। 22-- और जो कोई अपना क्रास (सलीब) नहीं उठाता है और मेरे पीछे ना जाए, वह मेरे योग्य नहींl

23-- जो कोई अपनी जीवन मेरी खातिर छोड़ेगा वह अपनी जीवन बचाएगा।

"गसटोली बान"अपने "सभ्यता अरब" पृष्ठ 127-128 पर लिखा है, कुरान के प्रसार के लिए बल (शक्ति) का कोई रोल नहीं था

बेशक इस्लाम में (इस्लाम के युद्ध में) विजयी ने हारने वालों को अपने धर्म पालन में स्वतंत्रता दी।

फिर अब कुछ नसरानी समुदाय ने इस्लाम स्वीकार किया, और अरबी को एक भाषा के रूप में स्वीकार किया, तो उन्होंने उन लोगों को ऐसी संघी (अदल) को देखा जो प्रबल थे, जो पिछले शासकों में नहीं देखा था और इसलाम में ऐसी सुविधाएं देखी जिन्हें वह नहीं जानते थे।

 

 

क्या इस्लामिक जीत का धन और संपत्ति (लोगों के धन)से फायदा उठाना लक्ष है

जो व्यक्ति इस्लामी शिक्षाओं, सिद्धांतों और उसके लक्षण से अवगत नहीं है, इस विचार को ध्यान में रख सकता है और इस धारणा को जो शुद्ध भैतिकवादी है, वह इसे मान भी लें कि इस्लामिक जीत का कारण धन और संपत्ति वापसी करना था,तो हम कहेंगे कि अल्लाह के रसूल के आमंत्रण (दीन की प्रचार) की शुरुआत में आप के लोगों ने आप से बात की

सभी प्रकार के प्रोत्साहन (तरगीबात) दे कर आपको बहलाना चाहा और आपकी सभी मांगों को पूरा करने का वादा किया, कि यदि आप नेता बनना चाहते हैं, तो आप को नेता बनाते हैं,यदि आप शादी करना चाहते हैं तो सभी औरतों से ज्यादा एक खूबसूरत महिला से विवाह करवा देते हैं, यदि आप माल चाहते हैं, तो हम आपको बहुत माल देते हैं, बस आप इस (आमंत्रण) प्रचार को छोड़ दें, जो इनके विचारधारा के अनुसार उनके भगवान (देवी देवताओं) के मूल्य और समाज में उनके मुकाम और मरतुबे को कम कर रही थी

इसलिए आपने अपने रब के मार्गदर्शन के द्वारा पूरा विश्वास के साथ उनसे कहा कि मैं यह तुम्हारे लिए छोड़ दूं यह मुझसे नहीं हो सकता,या यह कि आप सूर्य को ले आओ (इसका मतलब है कि मैं इस्लाम की प्रचार(निमंत्रण) को त्याग नहीं कर सकता भले ही मेरे पास सूर्य की रोशनी की ज्योति ले आओ)

यदि पैगंबर झूठे और सांसारिक उपकरणों और मानवतावादी लक्षणों के लालची होते तो इन प्रस्तुतियों को स्वीकार कर लेते,अवसर से लाभ उठा लेते

क्योंकि आप को जो प्रस्ताव दिया वह हर इंसान का सर्वोच्च उद्देश्य होता है।

इसी तरह जब अल्लाह ने आपको शासन (गलबा) दिया तो आप अपने आसपास के राज्यों और राज्यपालों को चिट्ठियो के द्वारा यही मांग की, कि उन्हें अपना राज्य और जो भी उनकी है वह अपने पास रखे, सिर्फ इस्लाम को स्वीकार कर लें, इन्हीं में से रोमन सम्राट को भी एक पत्र था, जिसमें आपने कहा: शुरू करता हूं अल्लाह के नाम से जो बड़ा मेहरबान और रहीम है अल्लाह के बंदे और पैगंबर मोहम्मद की ओर से यह पत्र हिरकल के नाम जो रोम का राजा है,शांति उस व्यक्ति पर जो हिदायत का पैरोकार हो, इसके बाद मैं आपको इस्लाम की ओर आमंत्रित करता हूं, यदि आप मुस्लिम हो जाते हैं तो आप सलामत रहेंगे, अल्लाह आपको दोगुना इनाम देगा यदि आप ना माने तो रोमनों का पाप तुम पर होगा

अल्लाह का फरमान है:

"يَا أَهْلَ الْكِتَابِ تَعَالَوْا إِلَى كَلِمَةٍ سَوَاءٍ بَيْنَنَا وَبَيْنَكُمْ أَنْ لاَ نَعْبُدَ إِلاَّ اللَّهَ وَلاَ نُشْرِكَ بِهِ شَيْئًا وَلاَ يَتَّخِذَ بَعْضُنَا بَعْضًا أَرْبَابًا مِنْ دُونِ اللَّهِ فَإِنْ تَوَلَّوْا فَقُولُوا اشْهَدُوا بِأَنَّا مُسْلِمُونَ" آل عمران آيه: 64

"फिर अगर इससे भी मुंह फेरें तो (कुछ) परवाह (नहीं) ख़ुदा फ़सादी लोगों को खूब जानता है ( रसूल) तुम (उनसे) कहो कि अहले किताब तुम ऐसी (ठिकाने की) बात पर तो आओ जो हमारे और तुम्हारे दरमियान यकसॉ है कि खुदा के सिवा किसी की इबादत करें और किसी चीज़ को उसका शरीक बनाएं और ख़ुदा के सिवा हममें से कोई किसी को अपना परवरदिगार बनाए अगर इससे भी मुंह मोडें तो तुम गवाह रहना हम (ख़ुदा के) फ़रमाबरदार हैं"

अनस (:) कहते हैं कि रसूलुल्लाह (:) से इस्लाम के बारे में जो भी पूछते (सवाल) करते और मागंते आप उसे वह दे देते,क्योंकि एक व्यक्ति आपके पास आया, आपने उसे दो पहाड़ों के बीच मौजूद बकरियां दे दिए, वह व्यक्ति अपने लोगों में लौट आया, तो कहने लगा लोगों मुसलमान हो जाओ बेशक मोहम्मद इतना देते हैं कि गरीबी का भय नहीं होता अनस ने कहा कि अगर यह आदमी जब मुसलमान होता है तो उसका उद्देश्य दुनिया ही होता है लेकिन जैसे ही वह मुसलमान बन गया,इस्लाम उसे दुनिया में मौजूद हर चीज से अधिक प्रिय हो जाता है एक दिन अल्लाह के रसूल के पास उमर बिन खत्ताब आए और वह देखें कि आप के कमरे मैं खजूर के पत्तों से बनी हुई चटाई है जिस पर रसूलुल्लाह सोए थे जिसकी वजह से आप के पहलू पर निशान थे और घर की कुल संपत्ति में जौ का एक सा, (ढाई किलो) जो एक बर्तन में रखी हुई थी आपके पास एक खूंटी पर चमड़े का एक थैला लटका हुआ देखा,अरब का आधा हिस्सा आप के अधीन चुके थे और आप की कुल संपत्ति यही थी।

 जब उमर बिन खत्ताब (:) ने यह दृश्य देखा तो आंखों से आंसू रोक सके जब रसूलुल्लाह (:)ने रोने का कारण पता किया तो उमर बिन खत्ताब(:) कहने लगे मैं क्यों ना रोऊं? दरअसल कैसर किसरा दुनिया में सांसारिक आशीषों का आनंद ले रहे हैं, और आप रसूलुल्लाह की संपत्ति वही एकमात्र चीज जो मैं देख रहा हूं, रसूलुल्लाह ने उनसे कहा कि क्या तुम इस बात पर सहमत नहीं कि उनके लिए दुनिया और हमारे लिए आखिरात हो?

फिर हमें यह भी देखना चाहिए कि रसूलुल्लाह(:)ने अपनी मृत्यु के बाद कौन सा दुनियावी उपकरण (साजो-सामान) पीछे छोड़ा

अमर बिन हारिस(:)ने कहा कि रसूलुल्लाह(:)ने अपनी मृत्यु के समय कोई दिरहम,पैसा छोड़ा ना ही दीनार, ना गुलाम छोड़ा और ना कोई और वस्तु, सेवाएं सफेद खच्चर और एक हथियार और एक जमीन जिसे आपने सदका कर दिया था

लेकिन जब पैगंबर(:)की मृत्यु हुई तो आप का ढाल 30 सा जौ के बदले एक यहूदी के आधीन थी

तो फिर दुनिया का प्रलोभन और धन का लालच कहां??

यह उमर बिन खत्ताब(:)है,जो रसूलुल्लाह के दूसरे खलीफा है जिन के शासनकाल में इस्लामिक जीत की सीमा बढ़ती चली गई, भूख की वजह से उनके पेट से आवाज आई तो वह अपने प्रसिद्ध (जुमला) वाक्यांश कहते है कि तुम डकारें लो या ना लो खुदा की कसम तुम उस वक्त तक सैर( संतुष्ट )नहीं हो सकते जब तक एक मुसलमान सैर (संतुष्ट) नहीं हो जाए।

उहुद के दिन दौराने जंग आपने कहा कि जन्नत की ओर खड़े हो जाओ जिसकी चौड़ाई आकाश और पृथ्वी है

यह सुनकर हज़रत उमैर बिन हम्माम(:)ने कहा कि हे अल्लाह के रसूल(:) क्या? शहादत के बदले आकाश और पृथ्वी की चौड़ाई के बराबर स्वर्ग है?!

रसूलुल्लाह(:)ने कहा! हां

उमैर बिन हम्माम (:) कहने लगे वाह! वाह! रसूलुल्लाह(:)ने कहा वाह! वाह! कहने पर किस चीज ने तुझे उभारा,उमेर बिना हम्माम (:)ने कहा कि अल्लाह के रसूल (:) "खुदा की कसम" मैं स्वर्ग की आशा में यह कहा, तो आप ने कहा कि आप स्वर्ग वासियों में से हो, फिर उसके बाद उमर बिन हम्माम(:)ने अपनी बास्केट से खजूर निकाल कर खाने लगे और शौके शहादत में कहने लगे अगर मैं इन खजूर को खाने तक जिंदा रहूं, तो यह बहुत लंबा जीवन होगा, आखिरकार उन्होंने सारी खजूर फेंक दी और युद्ध करते हुए शहीद हो गए,मुसलमानों को जो आगाज इस्लाम में जीत मिली सिर्फ वह जीत उनके और उनके बाद के आने वाले लोगों की शानदार जीवन बिताने के लिए पर्याप्त थी। लेकिन वह वही नहीं रुके क्योंकि इन जीत के पीछे उद्देश्य यह था कि, अल्लाह के धर्म का निमंत्रण (दावत आम) होना चाहिए और सभी जीवो (मखलूक) के लिए दीन प्रचार किया जाना चाहिए

ना यह की जीते हुए क्षेत्रों की धन और संपत्ति पर कब्जा किया जाए, इसकी सबसे बड़ी दलील (प्रमाण) यह है कि वह जगं से पूर्व उन राष्ट्रों को यह चयन करने का अधिकार देते कि या तो वह मुसलमान हो जाए, इस सूरत में उनकी भी वही अधिकार होंगे जो एक सामान्य मुसलमान का होता है और वह समान चीज़ होगी जो एक आम मुसलमानों की ज़िम्मे है

यदि वह इस्लाम से इनकार करते हैं तो, वह टैक्स (जिज़या) दें, जिज़या इस्लामिक सरकार की कुछ हद होती है, जो उसे अदा करना होता है जिसके बदले सरकार उनकी बचाओ और अन्य सुविधाएं से लाभ उठाने का प्रबंध करती है।

और इसके सिवा कुछ और नहीं,जबकि मुसलमानों पर यह वार्षिक आधार पर ज़कात के रूप में जिज़यो से कई गुना अधिक भुगतान करना अनिवार्य होता है

यदि वह जिज़या देने से इंकार कर देते हैं तो अल्लाह के दीन की प्रतिष्ठा के लिए उनसे लड़ाई की जाती है

संभव है कि ऐसे लोग जो इस्लाम और उसके लक्षणों को पहचानते हैं तो वह इमान ले आए, ताकि इस धर्म तक पहुंचने के रास्ते में कोई भी बाधा बने तो उससे लड़ा जा सके

इस्लामी विजय के महान नेता खालिद बिन वलीद (:) जिसे इस्लाम से पहले या इस्लाम में किसी भी युद्ध में हार नहीं मिली, जब वह मर गए तो उनके पास केवल एक घोड़ा एक तलवार और एक दास था, फिर दुनिया की प्रलोभन और धन का लालच कहां है?

यह तर्क दिया जाता है,कि पिछले मुजाहिदीन का उद्देश्य धर्म का प्रचार होता था, और एक ऐसा वाकिया भी है जिसे शद्दाद बिन इलहाद ने सुना है वह कहते हैं कि, "एक व्यक्ति नबी (:) के पास आया, आप (:)पर इमाम ले आया और आपके आज्ञाकारी बन गया, फिर कहने लगे मैं आपके साथ हिजरत करता हूं, नबी(:)ने अपने कुछ साथी को उसके बारे नसीहत की, जब एक युद्ध हुआ तो, नबी(:) को कुछ माले गनीमत हासिल हुआ आपने उसे बांट दिया और उसका हिस्सा भी निकाला और उसका हिस्सा उसके साथियों को दिया

(वह सहाबा की सवारी चराया करता था) जब वह आया तो उन्होंने उसे वह दे दिया

कहने लगा यह क्या है? उसने कहा आप का हिस्सा है, जो नबी(:) ने तुम्हारे लिए निकाला है, उसने वह ले लिया और लेकर नबी (:)के पास आया और कहने लगा यह क्या है? आपने कहा मैंने यह तुम्हारा हिस्सा निकाला है

वह कहने लगा कि मैं आप का पालन इसलिए नहीं किया, बल्कि मैं तो आपका पालन इसलिए किया कि मुझे (गले की तरफ इशारा करते हुए)यहां तीर लगे और मैं मर जाऊं और स्वर्ग में प्रवेश कर सकूं

आपने कहा कि यदि आप अल्लाह से सत्य कहोगे तो अल्लाह आपसे सत्य का व्यवहार करेगा, उसके बाद थोड़ी देर गुजरी फिर वह दुश्मन के विरुद्ध युद्ध के लिए तैयार हुआ, और उसे नबी(:) के पास लाया गया और उसकी तीर वही लगा जहां का संकेत क्या था

आपने कहा क्या यह वही है? सहाबा ने कहा हां आपने कहा उन्होंने अल्लाह के लिए सच कहा और अल्लाह ने उसके साथ सच्चाई का व्यवहार किया

फिर नबी(:) ने उसे अपने जूब्बे में कफनाया और उसे आगे रखकर उसका जनाजा पढ़ाया, जनाजे में आपके शब्दों में कुछ यह शब्द भी थे "या अल्लाह यह तेरा बंदा है हिजरत करके तेरी राह में निकला और शहीद होकर अपनी जान दे दी मैं इस बात पर गवाह हूं"

इस्लामी इतिहास की किताबें ऐसी घटनाओं से भरी है जो पहले मुसलमानों की इस दुनिया के साथ( जुहुद) कोशिश की इंगित करते हैं।

जिनका लक्ष्य और मुख्य उद्देश्य यह था कि, अल्लाह के दीन की दावत सभी मानव जाति के लिए प्रचार करना था उस सफलता को प्राप्त करने की इच्छा में जिसका आप(:)ने उनसे वादा किया था,"कि यदि अल्लाह ताला एक व्यक्ति को आप के माध्यम से निर्देशित (हिदायत) करता है तो यह लाल ऊंटों की तुलना में आपके लिए बेहतर है"

बल्कि उनमें से कई ऐसे थे जिनके धन और समाज इस धर्म के अपनाने की वजह से समाप्त हो गई, या तो उनके अहल और लोगों की उनसे अक्षमता की वजह से, या दीनी कामों में व्यस्त होने की वजह से, जो उनकी तमाम सोचो और मसरूफ पर भारी पड़ गई थी

एक जंग के मौके पर जलीलूल कद्र सहाबी नोमान बिन मुकरीन(:)जंग से पूर्व अल्लाह से यह दुआ करते हैं या अल्लाह अपने दीन (धर्म) को विजय कर, अपने बंदों की मदद कर और आज नोमान को सबसे पहले शहीद कर,या अल्लाह आज जीत के साथ मेरी आंखों को शांत कर, कि जिसमें इस्लाम को विजय प्राप्त हो आमीन

क्या इस प्रार्थना (दुआ) में दुनिया का कोई आकर्षण (लालच) है? जरा मिकवा-कीस के कासिद की बात सुने,जब वह अमर बीन आस (:) के पास से वापस आया, जब उन्होंने बाबू-लियों के किले को घेरा था

उसने कहा हम ने एक ऐसा राष्ट्र देखा है जो, नम्रता को बुलंदी से अधिक प्यार करता है उनमें से कोई भी दुनिया का लोभी नहीं है, वह धरती (ज़मीन) पर बैठते हैं, उनका धनवान उनके आम आदमी की तरह होता है, उनमें से किसी बड़े को छोटे पर और मुखिया को दास पर कोई तमीज हासिल नहीं

"थॅामस कालरली (Th. Carlyle) अपनी पुस्तक "हीरो एंड हीरोवर-शव" में लिखता है

वह कहते हैं अगर तलवार ना होता तो इस्लाम नहीं फैलता? वास्तव में तलवार!!!

लेकिन आप इस तलवार को कहां से हासिल करेंगे, हर नई सिद्धांत जब वह अपने शुरुआती चरणों में होता है तो अल्प संख्या होती है, केवल एक व्यक्ति के दिमाग में ही फलता-फूलता है,पूरी दुनिया में एक इंसान होता है जो इस पर विश्वास रखता है ऐसे में एक व्यक्ति का लोग विरोध करता है यदि वह तलवार उठा कर प्रचार शुरू कर दे तो यह उसको बहुत कम लाभ देगा

और मुझे लगता है कि यह हक (सच) जो स्वयं फैलता है, किसी भी तरीके से जैसे भी हालत के तकाजे हो

क्या आपने नहीं देखा कि नसरानी तलवार प्रयोग करने से थकती नहीं और जो कि शारले-मेंन ने सुकसान जनजातियों के साथ किया था, "मुझे यकीन है कि इस्लाम का प्रचार (प्रसार) तलवार से नहीं हुआ,बल्कि यह भाषा के माध्यम से या किसी अन्य उपकरण के माध्यम से किया गया था, हमें तथ्यों को ढुडना चाहिए, चाहे पत्र के माध्यम से या पत्रकारिता के माध्यम से या किसी और माध्यम से और हमें उसे छोड़ देना चाहिए कि वह अपने हाथों और नाखूनों के संग जद्दोजहद करें और उसे हार सिर्फ वही होगी जहां वह उसका उचित होगा"

 

 

इस्लाम उत्पीड़न और हिंसा का विरोध करता है

धर्म इस्लाम दया और करुणा का धर्म है, जो उत्पीड़न को छोड़ने के लिए आमंत्रित करता है ताकि पैगंबर (रसूल) की इक्तेदा की जाए जिनके बारे अल्लाह का यह फरमान है:

"فَبِمَا رَحْمَةٍ مِنَ اللَّهِ لِنْتَ لَهُمْ وَلَوْ كُنْتَ فَظًّا غَلِيظَ الْقَلْبِ لَانْفَضُّوا مِنْ حَوْلِكَ" آل عمران 159

"तो रसूल ये भी) ख़ुदा की एक मेहरबानी है कि तुम (सा) नरमदिल (सरदार) उनको मिला और तुम अगर बदमिज़ाज और सख्त दिल होते तब तो ये लोग (ख़ुदा जाने कब के) तुम्हारे गिर्द से तितर बितर हो गए होते पस (अब भी) तुम उनसे दरगुज़र करो"

इस प्रकार इस्लामी शिक्षाऔ ने हर गरीब, कमजोर पर दया, दयालु और दया- वान होने के लिए प्रोत्साहित किया हैl रसूल अल्लाह का फरमान है:

"रहम करने वालों पर रहमान रहम करता है, तुम जमीन वालों पर रहम करो आसमान वाला तुम पर रहम करेगा"

वास्तव में इस्लामी दया ने मनुष्य को भी पार गया है, ताकि उसमें जानवरों का भी हिस्सा हो,इन अज्ञात प्राणियों के प्रति दयालु होने के कारण एक व्यक्ति के पापों को माफ कर दिया गया और उन्हें स्वर्ग में प्रवेश किया गया

आप(:)का फरमान है: "एक आदमी रास्ता में चल रहा था उसी दौरान उसको बहुत जोर की प्यास लगी उसको एक कुआं मिला जिसमें उसने उतर कर पानी पिया फिर जब वह बाहर निकला तो उसने एक कुत्ते को पाया कि वह जुबान बाहर निकाले हुए हांप रहा था और प्यास की वजह से जमीन चाट रहा था यह देखकर उस व्यक्ति ने कहा इस कुत्ते की प्यास से वही हालत है जो मेरी थी, लिहाजा वह कुआं में उतरा फिर अपना चमड़ा वाला मोजा पानी से भरा और कुत्ता को पानी पिलाया इस पर कुत्ते ने अल्लाह से उसका शुक्रिया अदा किया तो अल्लाह ने उस को बख्श दिया, यह सुनकर सहाबा इकराम ने आप से दरियाफ्त किया कि अल्लाह के रसूल किया हमारे लिए जानवरों में भी अज्र-सवाब है आप ने जवाब दिया कि हर तरो-ताजा यानी जिंदा जिगर वाले में अज्र है"

और उन्हें तकलीफ देने और उन पर दया कृपा ना करने की वजह पर एक महिला अल्लाह के क्रोध के योग्य नरक में प्रवेश करती है

अल्लाह के रसूल का फरमान है: "एक औरत एक बिल्ली के सबब दोजख में गई उसने बिल्ली को बांधकर रखा, ना तो उसे खाना दिया ना पानी पिलाया और ना ही छोड़ा (कि वह जमीन से कीड़े मकोड़े खाकर) अपनी जान बचा लेती"

ऐसे बहुत सारे नवीन निर्देश मौजूद है जिसमें जानवरों के साथ दया करने और नरमी करने की दावत दी गई,

जब इस्लाम की जानवरों के साथ रहमत का यह आलम है तो इंसान जिसे अल्लाह ने तमाम मखलूकात पर फजीलत और इज्जत दी है उसके साथ रहमत का क्या आलम होगा?

 

 

मू्हारेबीन (बाग़ी) के साथ ईसलामी जंगी निजाम इस्लाम के न्याय और जुल्म से नफरत की वाजेह दलील हैं

इस्लाम में युद्ध मुसलमानों की पहली इच्छा और प्राथमिकता नहीं है। जिसकी स्पष्ट उदाहरण यह है कि मुसलमानों ने बहुत सारे उलूम और टेक्नोलॉजी मैं विकास किया उदाहरण गणित,चिकित्सा,भूगोल,विज्ञान-घड़ी,कुश्ती,भवन और डिजाइनर आदि

लेकिन उन्होंने जंगी आलात को कोई महत्व नहीं दिया कि उसमें विकास करें भले ही उन पर अनिवार्य था कि वह ऐसी तैयारी में रहे कि उनके शत्रुओं के दिमागों में जो शरारत थी,दबकर रह जाएं जिनका लक्ष्य ही पृथ्वी पर फसाद फैलाना है

कुरान करीम में "ऐरहाब" का अर्थ अल्लाह ताला के इस फरमान में स्पष्ट है:

"وَأَعِدُّوا لَهُمْ مَا اسْتَطَعْتُمْ مِنْ قُوَّةٍ وَمِنْ رِبَاطِ الْخَيْلِ تُرْهِبُونَ بِهِ عَدُوَّ اللَّهِ وَعَدُوَّكُمْ" سورة الأنفال: 60

और (मुसलमानों तुम कुफ्फार के मुकाबले के) वास्ते जहाँ तक तुमसे हो सके (अपने बाज़ू के) ज़ोर से और बॅधे हुए घोड़े से लड़ाई का सामान मुहय्या करो इससे ख़ुदा के दुश्मन और अपने दुश्मन

 बेहतर यह था कि मुसलमानों को मजबूत हथियारों द्वारा मजबूत किया गया होता ताकि न्याय और सुलह,उन लोगों को ज्ञात हो,जो डर पर सवार होते हैं कि कुरान में इसका उल्लेख किया गया है कि इसका क्या अर्थ होता है। इस डर का उद्देश्य शांति और सूलह है। लोगों पर जियादती नहीं, ना तो हत्या का बदला लेने का प्यार,बीमारों की तकलीफें,घायलों की आहें,मृत शरीरों का आनंद लेना और ना ही कैदियों को दंड देकर संतुष्टि हासिल करना है।

सलाहुद्दीन अल मुंतशिर खुद कैदियों का इलाज करते थे उन्हें पानी पिलाते थे और अनियमित रूप से होने वाली कैफियत पर रोते थे

मुसलमानों के यहां युद्ध एक हवस नहीं कि जिसमें उन्हें घायलों की आंहों-बका और उन्हें दंड देकर लज्जत मिलता हो,बल्कि यह युद्ध जुल्म को रोकने और समाज में न्याय और अमन कायम करने की खातिर होती है। इस तथ्य के बावजूद कि इस्लाम के अन्य राष्ट्रों के साथ संबंध शांति और सुरक्षा पर आधारित है, लेकिन जब इस्लाम का आह्वान करने के सभी तरीके हैं, तो इस्लाम में पांच प्रकार की परिस्थितियों में युद्ध की घोषणा की है यह शर्त है

1आत्मरक्षा, माता-पिता और देश का, राज्य का रक्षा

 अल्लाह का फरमान है:

"وَقَاتِلُوا فِي سَبِيلِ اللَّهِ الَّذِينَ يُقَاتِلُونَكُمْ وَلَا تَعْتَدُوا إِنَّ اللَّهَ لَا يُحِبُّ الْمُعْتَدِينَ" البقرة 190

"और जो लोग तुम से लड़े तुम (भी) ख़ुदा की राह में उनसे लड़ो और ज्यादती करो (क्योंकि) ख़ुदा ज्यादती करने वालों को हरगिज़ दोस्त नहीं रखता"

 2-- उत्पीड़ित की जीत के लिए और अत्याचार को रोकने के लिए और यही मामला इस्लाम में युद्ध को इंसानियत बनाता है

अल्लाह का फरमान है:

"وَمَا لَكُمْ لَا تُقَاتِلُونَ فِي سَبِيلِ اللَّهِ وَالْمُسْتَضْعَفِينَ مِنَ الرِّجَالِ وَالنِّسَاءِ وَالْوِلْدَانِ الَّذِينَ يَقُولُونَ رَبَّنَا أَخْرِجْنَا مِنْ هَذِهِ الْقَرْيَةِ الظَّالِمِ أَهْلُهَا وَاجْعَلْ لَنَا مِنْ لَدُنْكَ وَلِيًّا وَاجْعَلْ لَنَا مِنْ لَدُنْكَ نَصِيرًا" النساء 75

(और मुसलमानों) तुमको क्या हो गया है कि ख़ुदा की राह में उन कमज़ोर और बेबस मर्दो और औरतों और बच्चों (को कुफ्फ़ार के पंजे से छुड़ाने) के वास्ते जेहाद नहीं करते जो (हालते मजबूरी में) ख़ुदा से दुआएं मॉग रहे हैं कि हमारे पालने वाले किसी तरह इस बस्ती (मक्का) से जिसके बाशिन्दे बड़े ज़ालिम हैं हमें निकाल और अपनी तरफ़ से किसी को हमारा सरपरस्त बना और तू ख़ुद ही किसी को अपनी तरफ़ से हमारा मददगार बना"

3--वादा तोड़ने और समय सीमा तोड़ने की स्थिति में

 अल्लाह का फरमान है:

"وَإِنْ نَكَثُوا أَيْمَانَهُمْ مِنْ بَعْدِ عَهْدِهِمْ وَطَعَنُوا فِي دِينِكُمْ فَقَاتِلُوا أَئِمَّةَ الْكُفْرِ إِنَّهُمْ لَا أَيْمَانَ لَهُمْ لَعَلَّهُمْ يَنْتَهُونَ (12) أَلَا تُقَاتِلُونَ قَوْمًا نَكَثُوا أَيْمَانَهُمْ وَهَمُّوا بِإِخْرَاجِ الرَّسُولِ وَهُمْ بَدَءُوكُمْ أَوَّلَ مَرَّةٍ أَتَخْشَوْنَهُمْ فَاللَّهُ أَحَقُّ أَنْ تَخْشَوْهُ إِنْ كُنْتُمْ مُؤْمِنِينَ" التوبة آيه: 12-13

(मुसलमानों) भला तुम उन लोगों से क्यों नहीं लड़ते जिन्होंने अपनी क़समों को तोड़ डाला और रसूल को निकाल बाहर करना (अपने दिल में) ठान लिया था और तुमसे पहले छेड़ भी उन्होनें ही शुरू की थी क्या तुम उनसे डरते हो तो अगर तुम सच्चे ईमानदार हो तो ख़ुदा उनसे कहीं बढ़ कर तुम्हारे डरने के क़ाबिल है

इनसे (बेख़ौफ (ख़तर) लड़ो ख़ुदा तुम्हारे हाथों उनकी सज़ा करेगा और उन्हें रूसवा करेगा और तुम्हें उन पर फतेह अता करेगा और ईमानदार लोगों के कलेजे ठन्डे करेगा"

4--मुसलमान समुदाय पर विद्रोह करने वाले समूह की तादीब की खातिर, जो न्याय के विरुद्ध हो।

अल्लाह का फरमान है:

"وَإِنْ طَائِفَتَانِ مِنَ الْمُؤْمِنِينَ اقْتَتَلُوا فَأَصْلِحُوا بَيْنَهُمَا فَإِنْ بَغَتْ إِحْدَاهُمَا عَلَى الْأُخْرَى فَقَاتِلُوا الَّتِي تَبْغِي حَتَّى تَفِيءَ إِلَى أَمْرِ اللَّهِ فَإِنْ فَاءَتْ فَأَصْلِحُوا بَيْنَهُمَا بِالْعَدْلِ وَأَقْسِطُوا إِنَّ اللَّهَ يُحِبُّ الْمُقْسِطِينَ " الحجرات آيه: 9

"और अगर मोमिनीन में से दो फिरक़े आपस में लड़ पड़े तो उन दोनों में सुलह करा दो फिर अगर उनमें से एक (फ़रीक़) दूसरे पर ज्यादती करे तो जो (फिरक़ा) ज्यादती करे तुम (भी) उससे लड़ो यहाँ तक वह ख़ुदा के हुक्म की तरफ रूझू करे फिर जब रूजू करे तो फरीकैन में मसावात के साथ सुलह करा दो और इन्साफ़ से काम लो बेशक ख़ुदा इन्साफ़ करने वालों को दोस्त रखता है"

5--धर्म का रक्षा और इस धर्म के साथ खेलने वाले लोगों से इसकी रक्षा, इसी प्रकार जो अल्लाह के कानून का संदेश देने के रास्ते बाधा दे,जो कोई भी ईमान वालों को तकलीफ दे या जो इस दीन में प्रवेश करते हैं उनके लिए बाधा बने, उस से युद्ध करना इसलिए इस्लाम की दावत सर्व-दैनिक दावत है, यह किसी खास समूह के लिए नहीं है बल्कि तमाम इंसानों के लिए जरूरी है कि वह इस दावत को सुने उसकी मारेफत हासिल करें,और इसमें जो तमाम इंसानों के लिए आम भलाई है उसे जान ले, उसके बाद दीन इस्लाम में प्रवेश होने का फैसला करें, जहां तक विस्तार और ओपनिवेशिक युद्ध का संबंध है, जो राष्ट्रों के धन माल लूटने के लिए नाफिज की जाती है, यह युद्ध का विद्रोह, जो विनाश के अलावा और कुछ नहीं हैl

जैसे कि गर्व और झगड़े अपनी ताकत व्यक्त करने के लिए लड़े, इस्लाम ने इन सब से मना किया है, इसलिए इस्लाम में युद्ध का उद्देश्य अल्लाह के कलेमा को बुलंद के लिए है, व्यक्तिगत इच्छाओं और सांसारिक स्वभाव के लिए नहीं

अल्लाह का फरमान है:

"وَلَا تَكُونُوا كَالَّذِينَ خَرَجُوا مِنْ دِيَارِهِمْ بَطَرًا وَرِئَاءَ النَّاسِ" الأنفال 47"

"और उन लोगों के ऐसे हो जाओ जो इतराते हुए और लोगों के दिखलाने के वास्ते अपने घरों से निकल खड़े हुए"

 

 

इस्लाम में युद्ध के नियम

 यद्यपि इस्लाम ने जरूरत के तहत युद्ध की अनुमति दी है लेकिन इसके नियम भी स्थापित किए हैं

اغْزُوا بِاسْمِ اللهِ فِي سَبِيلِ اللهِ، قَاتِلُوا مَنْ كَفَرَ بِاللهِ، اغْزُوا وَلَا تَغُلُّوا، وَلَا تَغْدِرُوا، وَلَا تَمْثُلُوا، وَلَا تَقْتُلُوا وَلِيدًا "

रसूलुल्लाह के खलीफा अव्वल हजरत अबू बकर(:)जब अपने काऐदीन को जंग के लिए रवाना करते तो उनसे फरमाते रुक जाओ मैं तुम्हें 10 बातों की वसीयत करता हूं उन्हें मुझसे याद कर लो खयानत मत करना,माले-गनीमत में से चोरी मत करना, वादाखिलाफी ना करना,मुसला मत करना,छोटे बच्चों-बूढ़ों और औरतों का कत्ल मत करना,खजूर के पेड़ मत काटना,बकरी-ऊंट और गाय ज़बह ना करना,यह की खाने की जरूरत पड़ जाए, तुम रास्ते में ऐसे समूह से मिलो जो स्वयं को खानकाहों के लिए वक्फ किया होगा उन्हें उनके हाल पर छोड़ देना

 

 

इस्लाम में कैदि

इस्लाम में कैदियों को सजा देना,उन्हें अपमान करना,डराना,मुसला करना और मरने तक भूखा रखना मना है

 अल्लाह का फरमान है

"وَيُطْعِمُونَ الطَّعَامَ عَلَى حُبِّهِ مِسْكِينًا وَيَتِيمًا وَأَسِيرًا (8) إِنَّمَا نُطْعِمُكُمْ لِوَجْهِ اللَّهِ لَا نُرِيدُ مِنْكُمْ جَزَاءً وَلَا شُكُورًا " الإنسان 8-9

"और उसकी मोहब्बत में मोहताज और यतीम और असीर को खाना खिलाते हैं (8) (और कहते हैं कि) हम तो तुमको बस ख़ालिस ख़ुदा के लिए खिलाते हैं हम तुम से बदले के ख़ास्तगार हैं और शुक्र गुज़ारी के"

बल्कि इस्लाम ने उनका आदर (सम्मान) और उन पर नरमी करुणा का आदेश दिया है

मुस्अब बिन उमैर का भाई अबु अज़ीज़ अजीज उमैर कहते हैं कि:

"मैं बदर वाले दिन कैदियों में था, रसूलुल्लाह ने फरमाया:

" كنتُ في الأسرَى يومَ بدرٍ فقال رسولُ اللهِ صلَّى اللهُ عليه وسلَّم استوصوا بالأسارَى خيرًا وكنتُ في نفرٍ من الأنصارِ فكانوا إذا قدموا غداءَهم وعشاءَهم أكلوا التمرَ وأطعموني البرَّ لوصيةِ رسولِ اللهِ صلَّى اللهُ عليه وسلَّم" أخرجه الطبراني في معجمه الكبير ح (18410)، قال الهيثمي: "إسناده حسن" مجمع الزوائد (6/ 86). وضعفه الألباني (ضعيف الجامع رقم: 832).

"कैदियों के साथ भलाई की वसीयत करो और मैं अंसार की एक जमात में था, जब उनका दोपहर और रात का खाना आता तो वेह रसूलुल्लाह की वसीयत के कारण स्वयं खजूर खाते और मुझे जौ की रोटी खिलाते

इस्लाम ने कैदियों को मुक्ति देने पर उत्साहित किया है

रसूलुल्लाह का फरमान है: "कैदियों को मुक्त करो, भूखों को खाना खिलाओ और बीमारों की बीमार पुर्सी करो"

"فُكُّوا العَانِيَ، يَعْنِي: الأَسِيرَ، وَأَطْعِمُوا الجَائِعَ، وَعُودُوا المَرِيضَ." صحيح البخاري

 

 

इस्लाम में हारी हुई कौम की स्थिति

इस्लाम में हारी हुई कौम का सम्मान विनष्ट नहीं किया जाएगा, ना उनका माल लूटा जाएगा,ना उन्हें अपमान किया जाएगा, ना उनके घरों को बर्बाद किया जाएगा और ना ही बदला लेने के लिए उन्हें कत्ल किया जाएगा, बल्कि सुधार और नेकी (भलाई) का आदेश और बुराई से रोका जाएगा, न्याय स्थापित किया जाएगा

अल्लाह का फरमान है:

"الَّذِينَ إِنْ مَكَّنَّاهُمْ فِي الْأَرْضِ أَقَامُوا الصَّلَاةَ وَآتَوُا الزَّكَاةَ وَأَمَرُوا بِالْمَعْرُوفِ وَنَهَوْا عَنِ الْمُنْكَرِ وَلِلَّهِ عَاقِبَةُ الْأُمُورِ " الحج 41

"ये वह लोग हैं कि अगर हम इन्हें रूए ज़मीन पर क़ाबू दे दे तो भी यह लोग पाबन्दी से नमाजे अदा करेंगे और ज़कात देंगे और अच्छे-अच्छे काम का हुक्म करेंगे और बुरी बातों से (लोगों को) रोकेंगे और (यूँ तो) सब कामों का अन्जाम खुदा ही के एख्तेयार में है"

 उन्हें अपने धार्मिक आस्था,पूजा और उपासना की पूरी आजादी होगी, उसमें किसी प्रकार हस्ताक्षेप और प्रतिबंध नहीं होगा, उन के चर्चों (इबादतगाह) को गिराया जाएगा और उनके क्रॉसिंग (सलीबों) को तोड़ा जाएगा

इसका सबसे अच्छा प्रमाण वह अनुबंध (समझौता) है जो हजरत उमर फारूक (:) ने बैतूल मुकद्दस वालों को दिया था, जब वह उसमें विजेता के रूप में प्रवेश किए थे:

"بسم الله الرحمن الرحيم. هذا ما أعطى عبد الله عمر بن الخطاب أمير المؤمنين أهل المقدس من أمان: أعطاهم أماناً على أنفسهم وأموالهم وكنائسهم وصلبانهم .... ولا يكرهون على دينهم ولا يضار أحد منهم"

"यह वह सुरक्षा है जो अल्लाह के बंदे उमर बिन खत्ताब (:) ने बैतूल मुक़द्दस वालों को दिया, उन्हें उनकी जीवनों, संपत्तियों, चर्चों और क्रॉसिंग (सलीबों) पर सुरक्षा दी

और उनके धर्म पर उनके साथ जबरदस्ती नहीं की जाएगी और उनमें से किसी को दुख दिया जाएगा l

क्या इतिहास ने विजेताओं और ताकतवरो की ओर से कमजोरो और हारी हुई कौम के लिए कभी इस प्रकार का न्याय और क्षमा देखा होगा?

इसी प्रकार उनके धर्म उनके लिए जो खाना-पीना वैध किया है उसके खाने और पीने की पूरी आजादी (स्वतंत्त्रा) होगी, उनके सूअर कत्ल किए जाएंगे और ना उन के शराब बहाऐ जाएंगे, जहां तक उनके शहरी का मामलो का संबंध है

जैसे विवाह और तलाक के मसाइल और वित्तीय मामलों आदि तो उन्हें अपने विश्वास और धर्म के अनुसार उसका पालन करने की पूरी आजादी होगी

 

 

इस्लामी राष्ट्र में गैर मुसलमानों की स्थिति

समझौते में अनुबंधित गैर मुसलमानों पर तो अत्याचार किया जाएगा उनके अधिकारों को मारा जाएगा और उनके साथ दुर्व्यवहार किया जाएगा

अल्लाह ताला का फरमान है:

"لَا يَنْهَاكُمُ اللَّهُ عَنِ الَّذِينَ لَمْ يُقَاتِلُوكُمْ فِي الدِّينِ وَلَمْ يُخْرِجُوكُمْ مِنْ دِيَارِكُمْ أَنْ تَبَرُّوهُمْ وَتُقْسِطُوا إِلَيْهِمْ إِنَّ اللَّهَ يُحِبُّ الْمُقْسِطِينَ " الممتحنة 8

"जो लोग तुमसे तुम्हारे दीन के बारे में नहीं लड़े भिड़े और तुम्हें घरों से निकाले उन लोगों के साथ एहसान करने और उनके साथ इन्साफ़ से पेश आने से ख़ुदा तुम्हें मना नहीं करता बेशक ख़ुदा इन्साफ़ करने वालों को दोस्त रखता है"

 रसूल अल्लाह ने फरमाया:

"ألا مَنْ ظَلَمَ مُعاهِدا، أو انتَقَصَهُ، أو كلَّفَهُ فوق طاقَتِه، أو أخَذَ منه شيئا بغير طيب نفْسٍ، فَأنا حَجِيجُهُ يومَ القيامةِ"

"सावधान जिस किसी ने किसी अनुबंधित (गैर मुस्लिम शहरी) पर अत्याचार किया या उसका अधिकार छीना या उसकी अनुमति के बिना उससे कोई वस्तु छीन ली तो कयामत (जजमेंट) के दिन मैं उसकी ओर से(मुसलमान के) विरुद्ध झगड़ा करूंगा"

बल्कि उसके साथ भलाई का बर्ताव किया जाएगा उनके लिए अच्छाई को पसंद किया जाएगा और उनका उनको लाभ देने की कोशिश की जाएगी।

अनस (:)कहते हैं कि:

"أَنَّ غُلَامًا يَهُودِيًّا كَانَ يَخْدُمُ النَّبِيَّ صَلَّى اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ فَمَرِضَ فَقَالَ رَسُولُ اللَّهِ صَلَّى اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ لِأَصْحَابِهِ: (اذْهَبُوا بِنَا إِلَيْهِ نَعُودُهُ فَأَتَوْهُ ـ وَأَبُوهُ قَاعِدٌ عَلَى رَأْسِهِ ـ فَقَالَ لَهُ رَسُولُ اللَّهِ صَلَّى اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ:(قُلْ: لَا إِلَهَ إِلَّا اللَّهُ أَشْفَعُ لَكَ بِهَا يَوْمَ الْقِيَامَةِ) فَجَعَلَ الْغُلَامُ يَنْظُرُ إِلَى أَبِيهِ فَقَالَ لَهُ أَبُوهُ: انْظُرْ مَا يَقُولُ لَكَ أَبُو الْقَاسِمِ فَقَالَ: أَشْهَدُ أَنْ لَا إِلَهَ إِلَّا اللَّهُ وَأَشْهَدُ أَنَّ مُحَمَّدًا رَسُولُ اللَّهِ فَقَالَ رَسُولُ اللَّهِ صَلَّى اللَّهُ عليه وسلم: (الْحَمْدُ للَّهِ الَّذِي أَنْقَذَهُ مِنْ نَارِ جَهَنَّمَ)."

"एक यहूदी लड़का नबी की सेवा करता था वह एक बार बीमार पड़ा तो रसूलुल्लाह ने अपने सहाबा से कहा हमारे साथ उसे देखने के लिए चलो इसीलिए आप उसके पास देखने के लिए पधारें तो, उसका बाप उसके सिरहाने बैठा हुआ था रसूलुल्लाह ने उससे कहा तुम ला इलाहा इल्लल्लाह कहो मैं क्यामत (आखिरत) के दिन उसके द्वारा तुम्हारी सिफारिश करूंगा उसने अपने पिता की तरफ देखा (जो सिरहाने बैठा हुआ था) तो उसके पिता ने उससे कहा अबुल कासिम की बात मान लो तो वह मुसलमान हो गया आप यह कहते हुए उठ खड़े हुए सारी प्रशंसाये उस जात के लिए है जिसने इसको मेरी कारण आग से बचा लिया"

यह अब्दुल्लाह बिन अमर है उनके घर में बकरी ज़बह की गई जब वह अपने घर पहुंचे तो कहा क्या तुम हमारे यहूदी पड़ोसी की तरफ उपहार भेजा क्या तुम हमारे यहूदी पड़ोसी की तरफ उपहार भेजा मैंने रसूलुल्लाह को फरमाते हुए सुना है जिब्राइल (:) मुझे लगातार पड़ोसी के बारे में अच्छा बर्ताव की वसीयत करता रहा यहां तक कि मैं सोचने लगा कि वह उन्हें निश्चित रूप से वारिस बना देगा हवाला बाकी है

 

 

इस्लाम की मूल बातें

सभी लोगों के लिए आमतौर पर शांति चाहती है

`इस्लाम आमंत्रित करता है कि,

1मानव जीवन का सम्मान किया जाए क्योंकि मनुष्य इस्लाम में मूल्यवान और सम्मानजनक है उसका एक विशेष स्थान है इसी कारण इस्लाम में कि सास (सजा) को लागू किया गया है इसीलिए जानबूझकर हत्यारे को मार डालने का आदेश दिया गया है जहां तक गलती से हत्या का मामला है तो उसके लिए इस्लाम ने दियात आदेश है, दियात

एक वित्तीय राशि होती है जो मृत व्यक्ति के परिवारजनों को दी जाती है यह मृत व्यक्ति की लागत नहीं होती बल्कि यह नुकसान का माली बदला होता है जो मृत व्यक्ति के परिवार को मिलता है और कफ़्फ़ारा यह है कि एक दास मुक्त करें अगर वह ना मिले तो 2 महीने लगातार रोजे रखे अगर इसकी शक्ति ना हो तो साठ मिसकिनो को खाना खिलाएं यह कफ़्फ़ारा एक इबादत होती है जिसके द्वारा अल्लाह ताला का निकटता (कूर्ब) प्राप्त होता है इस आशा के साथ कि अल्लाह ताला उसका

वह पाप क्षमा कर दें जो अनजाने में उससे सर्जद हुआ है यह केवल इसी कारण है कि मानव जीवन को सुरक्षित किया जाए उनकी जीवन के साथ खिलवाड़ ना किया जाए और आवारागर्द लोगों को हत्या जैसे भयंकर अपराध करने से रोका जा सके इसलिए कि जिस व्यक्ति को यह विश्वास होगा कि अगर उसने किसी को हत्या किया तो बदले में उसे भी हत्या कर दिया जाएगा तो वह उस अपराध को छोड़ देगा और अपनी बुराई को अपने तक ही सीमित कर लेगा अगर हत्या की सजा हत्या हो तो वह कभी भी उस अपराध को नहीं छोड़ेगा इसी तरह इस्लाम ने जितनी भी सजाएं और हदें (सीमाएं) निर्धारित किया है उन्हें भी उसी पर कियास कर लें कि यह हुदुद (सीमाएं) उन अपराधो की रोकथाम का सबसे बड़ा साधन है जिन्हें इसीलिए बनाया गया है कि मानव जीवन और उसके अधिकारों को सुरक्षित किया जा सके

अल्लाह ताला का फरमान है:

"وَلَكُمْ فِي الْقِصَاصِ حَيَاةٌ يَا أُولِي الْأَلْبَابِ لَعَلَّكُمْ تَتَّقُونَ" البقرة آيه: 179

"और अक़लमनदों क़सास (के क़वाएद मुक़र्रर कर देने) में तुम्हारी ज़िन्दगी है (और इसीलिए जारी किया गया है ताकि तुम ख़ूंरेज़ी से) परहेज़ करो"

 

इसलाम ने केवल सांसारिक सजाओ पर ही बात नहीं किया बल्कि जानबूझकर हत्या करने पर आखिरत की सजा भी निर्धारित किया है जो उस पर अल्लाह ताला का क्रोध और कत्ल के रूप में नाज़िल होगी (आएगी)

अल्लाह ताला का फरमान है:

"وَمَنْ يَقْتُلْ مُؤْمِنًا مُتَعَمِّدًا فَجَزَاؤُهُ جَهَنَّمُ خَالِدًا فِيهَا وَغَضِبَ اللَّهُ عَلَيْهِ وَلَعَنَهُ وَأَعَدَّ لَهُ عَذَابًا عَظِيمًا" النساء آيه: 93

"और जो शख्स किसी मोमिन को जानबूझ के मार डाले (ग़ुलाम की आज़ादी वगैरह उसका कुफ्फ़ारा नहीं बल्कि) उसकी सज़ा दोज़क है और वह उसमें हमेशा रहेगा उसपर ख़ुदा ने (अपना) ग़ज़ब ढाया है और उसपर लानत की है और उसके लिए बड़ा सख्त अज़ाब तैयार कर रखा है"

:2-- इस्लाम धर्म में सारे इंसान चाहे वह पुरुष हो या महिलाएं हो मूल और जन्म के अनुसार सब समान हैं

अल्लाह ताला का फरमान है:

"يَا أَيُّهَا النَّاسُ اتَّقُوا رَبَّكُمُ الَّذِي خَلَقَكُمْ مِنْ نَفْسٍ وَاحِدَةٍ وَخَلَقَ مِنْهَا زَوْجَهَا وَبَثَّ مِنْهُمَا رِجَالًا كَثِيرًا وَنِسَاءً وَاتَّقُوا اللَّهَ الَّذِي تَسَاءَلُونَ بِهِ وَالْأَرْحَامَ إِنَّ اللَّهَ كَانَ عَلَيْكُمْ رَقِيبًا " النساء 1

" लोगों अपने पालने वाले से डरो जिसने तुम सबको (सिर्फ) एक शख्स से पैदा किया और (वह इस तरह कि पहले) उनकी बाकी मिट्टी से उनकी बीवी (हव्वा) को पैदा किया और (सिर्फ़) उन्हीं दो (मियॉ बीवी) से बहुत से मर्द और औरतें दुनिया में फैला दिये और उस ख़ुदा से डरो जिसके वसीले से आपस में एक दूसरे से सवाल करते हो और क़तए रहम से भी डरो बेशक ख़ुदा तुम्हारी देखभाल करने वाला है"

रसूल अल्लाह का फरमान है:

" النَّاسُ بَنُو آدَمَ، وَآدَمُ خُلِقَ مِنْ تُرَابٍ" رواه أحمد

"तमाम लोग आदम अलैहिस्सलाम की औलाद है और"

आदम को अल्लाह ने मिट्टी से पैदा किया है इसलिए इसी समानता की बुनियाद पर जिसे इस्लाम ने निर्धारित किया है तमाम इंसान इस्लाम की दृष्टि में समान है यही वह शेयार (प्रतीक) है जिसे उमर बिन खत्ताब ने 1400 साल पहले परिचलित किया था कि तुम ने लोगों को कबसे दास बनाना शुरू किया कर दिया है जबकि उनकी माताओ ने मुक्त जन्म दिया था

3--एक ही धर्म का प्रमाण (इसबात) है

अल्लाह ताला की ओर से धर्म अपने आम सामान्य बुनियादी बातों में आदम से लेकर अंतिम नबी और रसूल मुहम्मद (:) तक एक ही धर्म है इसलिए सारे नबियों का धर्म एक ही है और वह है तोहीद (एकश्वरबाद)

अल्लाह ताला की उसके निर्धारित किए हुए नियमों के अनुसार इबादत करना और यह की सारी आसमानी पुस्तकें अल्लाह ताला की तरफ से उतारी गई (वही) हैं

अल्लाह का फरमान है:

"شَرَعَ لَكُمْ مِنَ الدِّينِ مَا وَصَّى بِهِ نُوحًا وَالَّذِي أَوْحَيْنَا إِلَيْكَ وَمَا وَصَّيْنَا بِهِ إِبْرَاهِيمَ وَمُوسَى وَعِيسَى أَنْ أَقِيمُوا الدِّينَ وَلَا تَتَفَرَّقُوا فِيهِ" الشورى آيه :13

"उसने तुम्हारे लिए दीन का वही रास्ता मुक़र्रर किया जिस (पर चलने का) नूह को हुक्म दिया था और ( रसूल) उसी की हमने तुम्हारे पास वही भेजी है और उसी का इब्राहीम और मूसा और ईसा को भी हुक्म दिया था (वह) ये (है कि) दीन को क़ायम रखना और उसमें तफ़रक़ा डालना"

और अल्लाह का फरमान है:

"إِنَّا أَوْحَيْنَا إِلَيْكَ كَمَا أَوْحَيْنَا إِلَى نُوحٍ وَالنَّبِيِّينَ مِنْ بَعْدِهِ وَأَوْحَيْنَا إِلَى إِبْرَاهِيمَ وَإِسْمَاعِيلَ وَإِسْحَاقَ وَيَعْقُوبَ وَالْأَسْبَاطِ وَعِيسَى وَأَيُّوبَ وَيُونُسَ وَهَارُونَ وَسُلَيْمَانَ وَآتَيْنَا دَاوُودَ زَبُورًا (163) وَرُسُلًا قَدْ قَصَصْنَاهُمْ عَلَيْكَ مِنْ قَبْلُ وَرُسُلًا لَمْ نَقْصُصْهُمْ عَلَيْكَ وَكَلَّمَ اللَّهُ مُوسَى تَكْلِيمًا (164) رُسُلًا مُبَشِّرِينَ وَمُنْذِرِينَ لِئَلَّا يَكُونَ لِلنَّاسِ عَلَى اللَّهِ حُجَّةٌ بَعْدَ الرُّسُلِ وَكَانَ اللَّهُ عَزِيزًا حَكِيمًا" النساء آيه : 163-164-165

"( रसूल) हमने तुम्हारे पास (भी) तो इसी तरह 'वही' भेजी जिस तरह नूह और उसके बाद वाले पैग़म्बरों पर भेजी थी और जिस तरह इबराहीम और इस्माइल और इसहाक़ और याक़ूब और औलादे याक़ूब ईसा अय्यूब युनुस हारून सुलेमान के पास 'वही' भेजी थी और हमने दाऊद को ज़ुबूर अता की

जिनका हाल हमने तुमसे पहले ही बयान कर दिया और बहुत से ऐसे रसूल (भेजे) जिनका हाल तुमसे बयान नहीं किया और ख़ुदा ने मूसा से (बहुत सी) बातें भी कीं

और हमने नेक लोगों को बेहिश्त की ख़ुशख़बरी देने वाले और बुरे लोगों को अज़ाब से डराने वाले पैग़म्बर (भेजे) ताकि पैग़म्बरों के आने के बाद लोगों की ख़ुदा पर कोई हुज्जत बाक़ी रह जाए और ख़ुदा तो बड़ा ज़बरदस्त हकीम है (ये कुफ्फ़ार नहीं मानते मानें)"

इस्लामी शरीयत ने जातिवाद और घृणित ग्रुपिंग (समूहीकरण) का निंदा की है इंसानों के बीच पाई जाने वाली नफरत और भेदभाव को इस तरह समाप्त किया है कि रसूलों और पिछले आसमानी पुस्तकों की पुष्टि को ईमान का मुख्य हिस्सा घोषित किया है

अल्लाह ताला का फरमान है:

"قُولُوا آمَنَّا بِاللَّهِ وَمَا أُنْزِلَ إِلَيْنَا وَمَا أُنْزِلَ إِلَى إِبْرَاهِيمَ وَإِسْمَاعِيلَ وَإِسْحَاقَ وَيَعْقُوبَ وَالْأَسْبَاطِ وَمَا أُوتِيَ مُوسَى وَعِيسَى وَمَا أُوتِيَ النَّبِيُّونَ مِنْ رَبِّهِمْ لَا نُفَرِّقُ بَيْنَ أَحَدٍ مِنْهُمْ وَنَحْنُ لَهُ مُسْلِمُونَ " البقرة آيه : 136

"(और मुसलमानों तुम ये) कहो कि हम तो खुदा पर ईमान लाए हैं और उस पर जो हम पर नाज़िल किया गया (कुरान) और जो सहीफ़े इबराहीम इसमाइल इसहाक़ याकूब और औलादे याकूब पर नाज़िल हुए थे (उन पर) और जो किताब मूसा ईसा को दी गई (उस पर) और जो और पैग़म्बरों को उनके परवरदिगार की तरफ से उन्हें दिया गया (उस पर) हम तो उनमें से किसी (एक) में भी तफरीक़ नहीं करते और हम तो खुदा ही के फरमाबरदार हैं"

कुरान करीम सैयदना मूसा(:) को इस दृष्टि से देखता है कि वह अल्लाह के पसंदीदा और प्यारे रसूल थे

 अल्लाह ताला का फरमान है:

"يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُوا لَا تَكُونُوا كَالَّذِينَ آذَوْا مُوسَى فَبَرَّأَهُ اللَّهُ مِمَّا قَالُوا وَكَانَ عِنْدَ اللَّهِ وَجِيهًا" الأحزاب آيه: 69

ईमानवालों (ख़बरदार कहीं) तुम लोग भी उनके से हो जाना जिन्होंने मूसा को तकलीफ दी तो खुदा ने उनकी तोहमतों से मूसा को बरी कर दिया और मूसा खुदा के नज़दीक एक रवादार (इज्ज़त करने वाले) (पैग़म्बर) थे

उन पर तौरात उतारी गई, ईसलामी दृष्टि में वह प्रकाश हुआ मार्गदर्शन (नुर हिदायत) थी

है अल्लाह ताला का फरमान

"إِنَّا أَنْزَلْنَا التَّوْرَاةَ فِيهَا هُدًى وَنُورٌ يَحْكُمُ بِهَا النَّبِيُّونَ الَّذِينَ أَسْلَمُوا لِلَّذِينَ هَادُوا وَالرَّبَّانِيُّونَ وَالْأَحْبَارُ بِمَا اسْتُحْفِظُوا مِنْ كِتَابِ اللَّهِ وَكَانُوا عَلَيْهِ شُهَدَاءَ فَلَا تَخْشَوُا النَّاسَ وَاخْشَوْنِ وَلَا تَشْتَرُوا بِآيَاتِي ثَمَنًا قَلِيلًا وَمَنْ لَمْ يَحْكُمْ بِمَا أَنْزَلَ اللَّهُ فَأُولَئِكَ هُمُ الْكَافِرُونَ " المائدة آيه: 44

"बेशक हम ने तौरेत नाज़िल की जिसमें (लोगों की) हिदायत और नूर (ईमान) है उसी के मुताबिक़ ख़ुदा के फ़रमाबरदार बन्दे (अम्बियाए बनी इसराईल) यहूदियों को हुक्म देते रहे और अल्लाह वाले और उलेमाए (यहूद) भी किताबे ख़ुदा से (हुक्म देते थे) जिसके वह मुहाफ़िज़ बनाए गए थे और वह उसके गवाह भी थे पस ( मुसलमानों) तुम लोगों से (ज़रा भी) डरो (बल्कि) मुझ ही से डरो और मेरी आयतों के बदले में (दुनिया की दौलत जो दर हक़ीक़त बहुत थोड़ी क़ीमत है) लो और (समझ लो कि) जो शख्स ख़ुदा की नाज़िल की हुई (किताब) के मुताबिक़ हुक्म दे तो ऐसे ही लोग काफ़िर हैं"

मूसा (:) की कॉम बनी इसराइल एक सम्मानित कॉम थी जिसे उस समय की तमाम उम्मतो पर विशेषाधिकार प्राप्त था

 अल्लाह ताला का फरमान है:

يَا بَنِي إِسْرَائِيلَ اذْكُرُوا نِعْمَتِيَ الَّتِي أَنْعَمْتُ عَلَيْكُمْ وَأَنِّي فَضَّلْتُكُمْ عَلَى الْعَالَمِينَ " البقرة آيه: 122

" बनी इसराईल मेरी उन नेअमतों को याद करो जो मैंनं तुम को दी हैं और ये कि मैंने तुमको सारे जहाँन पर फज़ीलत दी"

इसी प्रकार कुरान करीम इसा (:) को इस दृष्टि से देखता है कि वह एक सम्मानित नबी थे (वह अल्लाह के कलमे (हुक्म) थे जिसे अल्लाह ने मरियम के पास भेज दिया था (कि हामला हो जा)

अल्लाह ताला का फरमान है:

" إِذْ قَالَتِ الْمَلَائِكَةُ يَا مَرْيَمُ إِنَّ اللَّهَ يُبَشِّرُكِ بِكَلِمَةٍ مِنْهُ اسْمُهُ الْمَسِيحُ عِيسَى ابْنُ مَرْيَمَ وَجِيهًا فِي الدُّنْيَا وَالْآخِرَةِ وَمِنَ الْمُقَرَّبِينَ (45) وَيُكَلِّمُ النَّاسَ فِي الْمَهْدِ وَكَهْلًا وَمِنَ الصَّالِحِينَ " آل عمران آيه: 45-46

"(वह वाक़िया भी याद करो) जब फ़रिश्तों ने (मरियम) से कहा मरियम ख़ुदा तुमको सिर्फ़ अपने हुक्म से एक लड़के के पैदा होने की खुशख़बरी देता है जिसका नाम ईसा मसीह इब्ने मरियम होगा (और) दुनिया और आखेरत (दोनों) में बाइज्ज़त (आबरू) और ख़ुदा के मुक़र्रब बन्दों में होगा

और (बचपन में) जब झूले में पड़ा होगा और बड़ी उम्र का होकर (दोनों हालतों में यकसॉ) लोगों से बाते करेगा और नेको कारों में से होगा"

और उनकी मां मरियम(:)को सिद्दीका (सचची) के रूप में देखता है

अल्लाह ताला का फरमान है:

"مَا الْمَسِيحُ ابْنُ مَرْيَمَ إِلَّا رَسُولٌ قَدْ خَلَتْ مِنْ قَبْلِهِ الرُّسُلُ وَأُمُّهُ صِدِّيقَةٌ كَانَا يَأْكُلَانِ الطَّعَامَ انْظُرْ كَيْفَ نُبَيِّنُ لَهُمُ الْآيَاتِ ثُمَّ انْظُرْ أَنَّى يُؤْفَكُونَ" المائدة آيه: 75

"मरियम के बेटे मसीह तो बस एक रसूल हैं और उनके क़ब्ल (और भी) बहुतेरे रसूल गुज़र चुके हैं और उनकी मॉ भी (ख़ुदा की) एक सच्ची बन्दी थी (और आदमियों की तरह) ये दोनों (के दोनों भी) खाना खाते थे ( रसूल) ग़ौर तो करो हम अपने एहकाम इनसे कैसा साफ़ साफ़ बयान करते हैं"

तौरात की तरह इंजील भी कुरान की दृष्टि में हिदायत और नूर थी

 अल्लाह ताला का फरमान है:

"وَقَفَّيْنَا عَلَى آثَارِهِمْ بِعِيسَى ابْنِ مَرْيَمَ مُصَدِّقًا لِمَا بَيْنَ يَدَيْهِ مِنَ التَّوْرَاةِ وَآتَيْنَاهُ الْإِنْجِيلَ فِيهِ هُدًى وَنُورٌ وَمُصَدِّقًا لِمَا بَيْنَ يَدَيْهِ مِنَ التَّوْرَاةِ وَهُدًى وَمَوْعِظَةً لِلْمُتَّقِينَ " المائدة آيه: 46

"और हम ने उन्हीं पैग़म्बरों के क़दम क़दम मरियम के बेटे ईसा को चलाया और वह इस किताब तौरैत की भी तस्दीक़ करते थे जो उनके सामने (पहले से) मौजूद थी और हमने उनको इन्जील (भी) अता की जिसमें (लोगों के लिए हर तरह की) हिदायत थी और नूर (ईमान) और वह इस किताब तौरेत की जो वक्ते नुज़ूले इन्जील (पहले से) मौजूद थी तसदीक़ करने वाली और परहेज़गारों की हिदायत नसीहत थी"

इस्लाम की दृष्टि में ईसा (:) के मानने वाले जो उन पर ईमान लाए वह दयालु और करुणा करने वाली उम्मत थी

अल्लाह ताला का फरमान है:

"ثُمَّ قَفَّيْنَا عَلَى آثَارِهِمْ بِرُسُلِنَا وَقَفَّيْنَا بِعِيسَى ابْنِ مَرْيَمَ وَآتَيْنَاهُ الْإِنْجِيلَ وَجَعَلْنَا فِي قُلُوبِ الَّذِينَ اتَّبَعُوهُ رَأْفَةً وَرَحْمَةً وَرَهْبَانِيَّةً ابْتَدَعُوهَا مَا كَتَبْنَاهَا عَلَيْهِمْ إِلَّا ابْتِغَاءَ رِضْوَانِ اللَّهِ فَمَا رَعَوْهَا حَقَّ رِعَايَتِهَا فَآتَيْنَا الَّذِينَ آمَنُوا مِنْهُمْ أَجْرَهُمْ وَكَثِيرٌ مِنْهُمْ فَاسِقُونَ" الحديد آيه: 27

"फिर उनके पीछे ही उनके क़दम क़दम अपने और पैग़म्बर भेजे और उनके पीछे मरियम के बेटे ईसा को भेजा और उनको इन्जील अता की और जिन लोगों ने उनकी पैरवी की उनके दिलों में यफ़क्क़त और मेहरबानी डाल दी और रहबानियत (लज्ज़ात से किनाराकशी) उन लोगों ने ख़ुद एक नयी बात निकाली थी हमने उनको उसका हुक्म नहीं दिया था मगर (उन लोगों ने) ख़ुदा की ख़ुशनूदी हासिल करने की ग़रज़ से (ख़ुद ईजाद किया) तो उसको भी जैसा बनाना चाहिए था बना सके तो जो लोग उनमें से ईमान लाए उनको हमने उनका अज्र दिया उनमें के बहुतेरे तो बदकार ही हैं"

प्रत्येक मुसलमान पर अनिवार्य है कि हर नबी और रसूल पर ईमान लाए और उनकी तरफ से जो पुस्तकें उतारी गई है उनकी पुष्टि करें

अल्लाह का फरमान है:

"إِنَّ الَّذِينَ يَكْفُرُونَ بِاللَّهِ وَرُسُلِهِ وَيُرِيدُونَ أَنْ يُفَرِّقُوا بَيْنَ اللَّهِ وَرُسُلِهِ وَيَقُولُونَ نُؤْمِنُ بِبَعْضٍ وَنَكْفُرُ بِبَعْضٍ وَيُرِيدُونَ أَنْ يَتَّخِذُوا بَيْنَ ذَلِكَ سَبِيلًا (150) أُولَئِكَ هُمُ الْكَافِرُونَ حَقًّا وَأَعْتَدْنَا لِلْكَافِرِينَ عَذَابًا مُهِينًا " النساء آيه: 150-151

"बेशक जो लोग ख़ुदा और उसके रसूलों से इन्कार करते हैं और ख़ुदा और उसके रसूलों में तफ़रक़ा डालना चाहते हैं और कहते हैं कि हम बाज़ (पैग़म्बरों) पर ईमान लाए हैं और बाज़ का इन्कार करते हैं और चाहते हैं कि इस (कुफ़्र ईमान) के दरमियान एक दूसरी राह निकलें

यही लोग हक़ीक़तन काफ़िर हैं और हमने काफ़िरों के वास्ते ज़िल्लत देने वाला अज़ाब तैयार कर रखा है"

इसी तरह मुस्लिम पर अनिवार्य है कि तमाम शरीयातो का सम्मान करें और जो लोग रसूलुल्लाह के आगमन से पहले उन पर ईमान लाए, उनसे मोहब्बत करें और उन्हें अपना दीनि भाई जाने

अल्लाह ताला का फरमान है;

"رَبَّنَا اغْفِرْ لَنَا وَلِإِخْوَانِنَا الَّذِينَ سَبَقُونَا بِالْإِيمَانِ"

और उनका भी हिस्सा है और जो लोग उन (मोहाजेरीन) के बाद आए (और) दुआ करते हैं कि परवरदिगारा हमारी और उन लोगों की जो हमसे पहले ईमान ला चुके मग़फेरत कर और मोमिनों की तरफ से हमारे दिलों में किसी तरह का कीना आने दे परवरदिगार बेशक तू बड़ा शफीक़ निहायत रहम वाला है

रसूलुल्लाह के आगमन के बाद रसूलों का सिलसिला समाप्त हो गया और आसमान से वही आना बंद हो गया

अल्लाह ताला का फरमान है:

"مَا كَانَ مُحَمَّدٌ أَبَا أَحَدٍ مِنْ رِجَالِكُمْ وَلَكِنْ رَسُولَ اللَّهِ وَخَاتَمَ النَّبِيِّينَ " الأحزاب 40

"(लोगों) मोहम्मद तुम्हारे मर्दों में से (हक़ीक़तन) किसी के बाप नहीं हैं (फिर जैद की बीवी क्यों हराम होने लगी) बल्कि अल्लाह के रसूल और नबियों की मोहर (यानी ख़त्म करने वाले) हैं और खुदा तो हर चीज़ से खूब वाक़िफ है"

आप पर जो शरीयत उतरी गई है उसने पिछली तमाम शरीयातो को रद्द कर दिया इस रद्द का आवश्यक मांग यह है कि आपकी शरीयत पर ईमान लाया जाए उस पर अमल किया जाए और पिछली शरीयातो को छोड़ दिया जाए इस रद्द का अर्थ यह नहीं है कि उनका इनकार किया जाए बल्कि उन पर ईमान हो लेकिन अमल ना हो

अल्लाह ताला का फरमान है:

"وَمَنْ يَبْتَغِ غَيْرَ الْإِسْلَامِ دِينًا فَلَنْ يُقْبَلَ مِنْهُ وَهُوَ فِي الْآخِرَةِ مِنَ الْخَاسِرِينَ"

"और हम तो उसी (यकता ख़ुदा) के फ़रमाबरदार हैं और जो शख्स इस्लाम के सिवा किसी और दीन की ख्वाहिश करे तो उसका वह दीन हरगिज़ कुबूल ही किया जाएगा और वह आख़िरत में सख्त घाटे में रहेगा"

इस्लामी शरीयत का अन्य आसमानी शरियतों के मानने वालों से यही मांग है कि वह उसी तरह ईमान लाए जिस तरह तमाम मुसलमान ईमान लाते हैं, तमाम नबीयों और रसूलों की तस्दीक (पुष्टि) की जाए जो अल्लाह की तरफ से भेजे गए हैं उसी तरह तमाम पुस्तकों की भी जो अल्लाह की तरफ से उन पर उतारी गई है

अल्लाह ताला का फरमान है:

"فَإِنْ آمَنُوا بِمِثْلِ مَا آمَنْتُمْ بِهِ فَقَدِ اهْتَدَوْا وَإِنْ تَوَلَّوْا فَإِنَّمَا هُمْ فِي شِقَاقٍ فَسَيَكْفِيكَهُمُ اللَّهُ وَهُوَ السَّمِيعُ الْعَلِيمُ" البقرة آيه: 137

"पस अगर ये लोग भी उसी तरह ईमान लाए हैं जिस तरह तुम तो अलबत्ता राहे रास्त पर गए और अगर वह इस तरीके से मुँह फेर लें तो बस वह सिर्फ तुम्हारी ही ज़िद पर है तो ( रसूल) उन (के शर) से (बचाने को) तुम्हारे लिए खुदा काफ़ी होगा और वह (सबकी हालत) खूब जानता (और) सुनता है"

और अगर कोई अंतर करता है तो इस्लामी शरीयत ऐसे हर विरोधी और जिद्दी व्यक्ति से परे हैं

अल्लाह का फरमान है:

"إِنَّ الَّذِينَ فَرَّقُوا دِينَهُمْ وَكَانُوا شِيَعًا لَسْتَ مِنْهُمْ فِي شَيْءٍ إِنَّمَا أَمْرُهُمْ إِلَى اللَّهِ ثُمَّ يُنَبِّئُهُمْ بِمَا كَانُوا يَفْعَلُونَ (159) مَنْ جَاءَ بِالْحَسَنَةِ فَلَهُ عَشْرُ أَمْثَالِهَا وَمَنْ جَاءَ بِالسَّيِّئَةِ فَلَا يُجْزَى إِلَّا مِثْلَهَا وَهُمْ لَا يُظْلَمُونَ (160) قُلْ إِنَّنِي هَدَانِي رَبِّي إِلَى صِرَاطٍ مُسْتَقِيمٍ دِينًا قِيَمًا مِلَّةَ إِبْرَاهِيمَ حَنِيفًا وَمَا كَانَ مِنَ الْمُشْرِكِينَ" الانعام آيه: 159-163

"बेशक जिन लोगों ने आपने दीन में तफरक़ा डाला और कई फरीक़ बन गए थे उनसे कुछ सरोकार नहीं उनका मामला तो सिर्फ ख़ुदा के हवाले है फिर जो कुछ वह दुनिया में नेक या बद किया करते थे वह उन्हें बता देगा (उसकी रहमत तो देखो)

जो शख्स नेकी करेगा तो उसको दस गुना सवाब अता होगा और जो शख्स बदी करेगा तो उसकी सज़ा उसको बस उतनी ही दी जाएगी और वह लोग (किसी तरह) सताए जाएगें

( रसूल) तुम उनसे कहो कि मुझे तो मेरे परवरदिगार ने सीधी राह यानि एक मज़बूत दीन इबराहीम के मज़हब की हिदायत फरमाई है बातिल से कतरा के चलते थे और मुशरेकीन से थे"

इस्लामी शरीयत अन्य धर्मों के मानने वालों को आमंत्रित करने के लिए जिस नियम पर चलती है, वह उद्देश्यपूर्ण वार्तालाप इलाही विधि के अनुसार बहस जो लोगों को जोड़ने वाला है ऐसा तरीका है, इसी तरह लोगों को अच्छे चरित्र जिसका अल्लाह ताला ने आदेश दिया है उसकी तरफ आमंत्रित करती है

अल्लाह का फरमान है:

"قُلْ يَا أَهْلَ الْكِتَابِ تَعَالَوْا إِلَى كَلِمَةٍ سَوَاءٍ بَيْنَنَا وَبَيْنَكُمْ أَلَّا نَعْبُدَ إِلَّا اللَّهَ وَلَا نُشْرِكَ بِهِ شَيْئًا وَلَا يَتَّخِذَ بَعْضُنَا بَعْضًا أَرْبَابًا مِنْ دُونِ اللَّهِ فَإِنْ تَوَلَّوْا فَقُولُوا اشْهَدُوا بِأَنَّا مُسْلِمُونَ" آل عمران 64

"फिर अगर इससे भी मुंह फेरें तो (कुछ) परवाह (नहीं) ख़ुदा फ़सादी लोगों को खूब जानता है ( रसूल) तुम (उनसे) कहो कि अहले किताब तुम ऐसी (ठिकाने की) बात पर तो आओ जो हमारे और तुम्हारे दरमियान यकसॉ है कि खुदा के सिवा किसी की इबादत करें और किसी चीज़ को उसका शरीक बनाएं और ख़ुदा के सिवा हममें से कोई किसी को अपना परवरदिगार बनाए अगर इससे भी मुंह मोडें तो तुम गवाह रहना हम (ख़ुदा के) फ़रमाबरदार हैं"

इसी तरह विरोधियों का भावनाओं का सम्मान किया जाए उनके धर्म और विश्वासों को गालियां देकर उनके भगवानों को चोट ना पहुंचाया जाए

अल्लाह ताला का फरमान है:

"وَلَا تَسُبُّوا الَّذِينَ يَدْعُونَ مِنْ دُونِ اللَّهِ فَيَسُبُّوا اللَّهَ عَدْوًا بِغَيْرِ عِلْمٍ" الأنعام 108

"और ये (मुशरेकीन) जिन की अल्लाह के सिवा (ख़ुदा समझ कर) इबादत करते हैं उन्हें तुम बुरा कहा करो वरना ये लोग भी ख़ुदा को बिना समझें अदावत से बुरा (भला) कह बैठें"

इस्लाम ने अपने मानने वालों को आदेश दिया है कि सबसे अच्छे तरीके से अपने विरोधियों के साथ बहस किया जाए

अल्लाह ताला का फरमान है:

"وَلَا تُجَادِلُوا أَهْلَ الْكِتَابِ إِلَّا بِالَّتِي هِيَ أَحْسَنُ إِلَّا الَّذِينَ ظَلَمُوا مِنْهُمْ وَقُولُوا آمَنَّا بِالَّذِي أُنْزِلَ إِلَيْنَا وَأُنْزِلَ إِلَيْكُمْ وَإِلَهُنَا وَإِلَهُكُمْ وَاحِدٌ وَنَحْنُ لَهُ مُسْلِمُونَ " العنكبوت آيه: 46

"और ( ईमानदारों) अहले किताब से मनाज़िरा किया करो मगर उमदा और शाएस्ता अलफाज़ उनवान से लेकिन उनमें से जिन लोगों ने तुम पर ज़ुल्म किया (उनके साथ रिआयत करो) और साफ साफ कह दो कि जो किताब हम पर नाज़िल हुई और जो किताब तुम पर नाज़िल हुई है हम तो सब पर ईमान ला चुके और हमारा माबूद और तुम्हारा माबूद एक ही है और हम उसी के फरमाबरदार है"

लोगों को इस्लाम धर्म स्वीकार करने पर मजबूर करना इस्लामी तरीका नहीं है

अल्लाह का फरमान है:

"لَا إِكْرَاهَ فِي الدِّينِ قَدْ تَبَيَّنَ الرُّشْدُ مِنَ الْغَيِّ" البقرة: 256

"दीन में किसी तरह की जबरदस्ती नहीं क्योंकि हिदायत गुमराही से (अलग) ज़ाहिर हो चुकी तो जिस शख्स ने झूठे खुदाओं बुतों से इंकार किया और खुदा ही पर ईमान लाया तो उसने वो मज़बूत रस्सी पकड़ी है जो टूट ही नहीं सकती और ख़ुदा सब कुछ सुनता और जानता है"

इस्लाम का तरीका यह है कि गैर मुस्लिमों तक इस्लाम को बिना किसी दबाव के पहुंचाया जाए, इसी को इस्लाम में हिदायतूद- दलालह (गाइड की मार्गदर्शन) कहा जाता है, जहां तक हिदायतू-तौफीक (इस्लाम स्वीकार करने की तौफीक देना) का ताल्लुक है तो वह अल्लाह ताला के हाथ में है

अल्लाह का फरमान है:

وَقُلِ الْحَقُّ مِنْ رَبِّكُمْ فَمَنْ شَاءَ فَلْيُؤْمِنْ وَمَنْ شَاءَ فَلْيَكْفُرْ إِنَّا أَعْتَدْنَا لِلظَّالِمِينَ نَارًا أَحَاطَ بِهِمْ سُرَادِقُهَا وَإِنْ يَسْتَغِيثُوا يُغَاثُوا بِمَاءٍ كَالْمُهْلِ يَشْوِي الْوُجُوهَ بِئْسَ الشَّرَابُ وَسَاءَتْ مُرْتَفَقًا " الكهف آيه: 29

"और ( रसूल) तुम कह दों कि सच्ची बात (कलमए तौहीद) तुम्हारे परवरदिगार की तरफ से (नाज़िल हो चुकी है) बस जो चाहे माने और जो चाहे माने (मगर) हमने ज़ालिमों के लिए वह आग (दहका के) तैयार कर रखी है जिसकी क़नातें उन्हें घेर लेगी और अगर वह लोग दोहाई करेगें तो उनकी फरियाद रसी खौलते हुए पानी से की जाएगी जो मसलन पिघले हुए ताबें की तरह होगा (और) वह मुँह को भून डालेगा क्या बुरा पानी है और (जहन्नुम भी) क्या बुरी जगह है"

इस्लाम ने हर मामले में न्या का आदेश दिया है यहां तक कि अपने विरोधियों के साथ भी अल्लाह ताला का फरमान है:

"وَأُمِرْتُ لِأَعْدِلَ بَيْنَكُمُ اللَّهُ رَبُّنَا وَرَبُّكُمْ لَنَا أَعْمَالُنَا وَلَكُمْ أَعْمَالُكُمْ لَا حُجَّةَ بَيْنَنَا وَبَيْنَكُمُ اللَّهُ يَجْمَعُ بَيْنَنَا وَإِلَيْهِ الْمَصِيرُ" الشورى آيه: 15

"तो ( रसूल) तुम (लोगों को) उसी (दीन) की तरफ बुलाते रहे जो और जैसा तुमको हुक्म हुआ है (उसी पर क़ायम रहो और उनकी नफ़सियानी ख्वाहिशों की पैरवी करो और साफ़ साफ़ कह दो कि जो किताब ख़ुदा ने नाज़िल की है उस पर मैं ईमान रखता हूँ और मुझे हुक्म हुआ है कि मैं तुम्हारे एख्तेलाफात के (दरमेयान) इन्साफ़ (से फ़ैसला) करूँ ख़ुदा ही हमारा भी परवरदिगार है और वही तुम्हारा भी परवरदिगार है हमारी कारगुज़ारियाँ हमारे ही लिए हैं और तुम्हारी कारस्तानियाँ तुम्हारे वास्ते हममें और तुममें तो कुछ हुज्जत ( तक़रार की ज़रूरत) नहीं ख़ुदा ही हम (क़यामत में) सबको इकट्ठा करेगा"

4 इस्लाम ने पारस्परिक, लाभदायक, सहयोग पर उभारा है जो तमाम भलाई का स्रोत हो और हर उस काम को करने का आग्रह दिलाया है जिसमें इंसानी समाज के लिए लाभ हो

अल्लाह का फरमान है:

"وَتَعَاوَنُوا عَلَى الْبِرِّ وَالتَّقْوَى وَلَا تَعَاوَنُوا عَلَى الْإِثْمِ وَالْعُدْوَانِ وَاتَّقُوا اللَّهَ إِنَّ اللَّهَ شَدِيدُ الْعِقَابِ" (المائدة آيه : 2)

तुम्हारा तो फ़र्ज यह है कि ) नेकी और परहेज़गारी में एक दूसरे की मदद किया करो और गुनाह और ज्यादती में बाहम किसी की मदद करो और ख़ुदा से डरते रहो (क्योंकि) ख़ुदा तो यक़ीनन बड़ा सख्त अज़ाब वाला है

इब्ने उम्र (:) से रिवायत है कि एक व्यक्ति रसूलुल्लाह (:) के पास आया और कहा

يا رسول الله أي الناس أحب إلى الله وأي الأعمال أحب إلى الله؟ فقال رسول الله صلى الله عليه وسلم : " أحب الناس إلى الله تعالى أنفعهم للناس وأحب الأعمال إلى الله عز وجل سرور يدخله على مسلم أو يكشف عنه كربة أو يقضي عنه دينا أو يطرد عنه جوعا ولأن أمشي مع أخ في حاجة أحب إلي من أن أعتكف في هذا المسجد ( يعني : مسجد المدينة ) شهرا ومن كف غضبه ستر الله عورته ومن كظم غيظه ولو شاء أن يمضيه أمضاه ملأ الله قلبه رجاء يوم القيامة ومن مشى مع أخيه في حاجة حتى تتهيأ له ؛ أثبت الله قدمه يوم تزول الأقدام ( وإن سوء الخلق يفسد العمل كما يفسد الخل العسل ] أخرجه الطبراني في " المعجم الكبير " وصححه الألباني في السلسلة الصحيحة.

"है अल्लाह के रसूल कौन सा अमल और कौन सा व्यक्ति अल्लाह ताला को सबसे ज्यादा (सबसे अधिक) प्यारा है रसूलुल्लाह ने फरमाया अल्लाह ताला की निगाह में सबसे ज्यादा महबूब वह है जो लोगों के लिए ज्यादा फायदेमंद हो और अल्लाह ताला को सबसे ज्यादा महबूब अमल यह है किसी मुसलमान को खुश किया जाए या उससे कोई मुसीबत दूर किया जाए या उसका ऋण अदा किया जाए या उसकी बोझ खत्म किया जाए

और अगर मैं किसी भाई की आवश्यकता पूरी करने के लिए उसके साथ जाऊं तो यह मुझे इस मस्जिद में एक महीना एतकाफ करने से ज्यादा पसंद है और जिसने अपना गुस्सा रोक लिया अल्लाह उसके ऐब पर पर्दा डाल देगा और जिसने अपना गुस्सा रोक लिया बावजूद इसके कि अगर वह उसको लागू करना चाहता तो लागू कर सकता था तो अल्लाह ताला क्यामत के दिन उसके दिल को आशा से भर देगा और जो व्यक्ति अपने भाई की जरूरत पूरी करने के लिए चला तो अल्लाह उसको उस दिन साबित कदमी अता फरमाएगा जिस दिन कदम डगमगा जाएंगे और दुर्व्यवहार अमल को ऐसे बिगाड़ देता है जिस तरह सिरका मधु को बिगाड़ देता है

इस उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए इस्लाम ने कुछ रास्ते निर्धारित किए हैं जो यह है इस्लाम ने आग्रह दिलाया है कि विभिन्न संप्रदायो के बीच मुनासिब पारस्परिक लाइफ स्टाइल और आपस में परिचय की दावत को आम किया जाए यह वह रब्बानी तरीका है जो तौहीद, रसूलों और किताबों के इकरार पर आधारित है

अल्लाह का फरमान है:

"يَا أَيُّهَا النَّاسُ إِنَّا خَلَقْنَاكُمْ مِنْ ذَكَرٍ وَأُنْثَى وَجَعَلْنَاكُمْ شُعُوبًا وَقَبَائِلَ لِتَعَارَفُوا إِنَّ أَكْرَمَكُمْ عِنْدَ اللَّهِ أَتْقَاكُمْ" الحجرات آيه: 13

"लोगों हमने तो तुम सबको एक मर्द और एक औरत से पैदा किया और हम ही ने तुम्हारे कबीले और बिरादरियाँ बनायीं ताकि एक दूसरे की शिनाख्त करे इसमें शक़ नहीं कि ख़ुदा के नज़दीक तुम सबमें बड़ा इज्ज़तदार वही है जो बड़ा परहेज़गार हो"

इस्लाम ने आग्रह दिलाया है कि तमाम इंसानों के साथ भलाई की जाए

अबू हुरैरा (:) कहते हैं कि एक दिन रसूल अल्लाह (:)ने फरमाया कि कोन व्यक्ति है? जो मुझसे पांच बातों को सीखे और फिर उन पर अमल करें या उस व्यक्ति को सिखाएं जो उन पर अमल करने वाला हो>? अबू हुरैरा (:)कहते हैं कि यह सुनकर मैंने कहा कि या रसूलुल्लाह (:)वह व्यक्ति मैं हूं रसूलुल्लाह(:)ने यह सुनकर मेरा हाथ पकड़ा और पांच बातें गिनाए और इस तरह बयान फरमाया (1)तुम उन वस्तुओं से बचो जिनको शरीयात ने हराम घोषणा किया है अगर तुम उनसे बचोगे तो तुम लोगों में सबसे अधिक इबादत करने वाला बंदे होगे

(2) तुम उस वस्तु पर संतुष्ट और खुश रहो जिसको अल्लाह ताला ने तुम्हारे भाग्य में लिख दिया है, अगर तुम खुदा की बनाई हुई भाग्य पर खुश और संतुष्ट रहोगे तो तुम्हारा शुमार सबसे बड़े धनवान लोगों में होगा (अर्थात जब बंदा अपने भाग्य पर राजी और संतुष्ट हो जाता है और लोभ से दूर होकर अधिक चाहत की आवश्यकता नहीं रखता तो वह धनी जैसा हो जाता है और धनी होने का असल मतलब भी यही है)

(3) तुम अपने पड़ोसी से अच्छा व्यवहार करो (यद्यपि वह तुम्हारे साथ दुर्व्यवहार करें) अगर तुम ऐसा करोगे तो तुम कामिल मोमिन समझे जाओगे\

(4) तुम अधिक हंसने से बचो क्योंकि अधिक हंसना दिल को मुर्दा और अल्लाह की याद से दूर बना देता है (अगर तुम अधिक हंसने से बचोगे तो तुम्हारा दिल ताजगी और रोशनी से भरा रहेगा और अल्लाह की याद द्वारा उसको संतुष्टि मिलेगी)

इस्लाम ने प्रोत्साहित किया है कि तमाम इंसानों के साथ भलाई की जाए आप (:)का फरमान है: "दीन भलाई है हमने, पूछा किसकी? आप (:)ने फरमाया अल्लाह की,उसकी किताब की, उसके रसूल की, मुस्लिम शासकों की और आम आदमी की"

इस्लाम ने प्रोत्साहित किया है कि नेकी का आदेश दिया जाए और बुराई से रोका जाए, हर व्यक्ति अपनी शक्ति और संभावनाओं के अनुसार तमाम तरीकों और साधनों द्वारा, यही अमन शांति की बुनियाद है, जिसके द्वारा उम्मत अत्याचार, अराजकता, भ्रष्टाचार अधिकारों की बर्बादी और जंगलराज से सुरक्षित रहती है, नेकी का आदेश और बुराई से रोकने के द्वारा जाहिल को शिक्षा दी जाती है, लापरवाह को चेतावनी दी जाती है, गुनहगार (पापी) की सुधार होती है और सीधे पथ पर चलने वालों की सहायता होती है

अल्लाह का फरमान है:

" وَلْتَكُنْ مِنْكُمْ أُمَّةٌ يَدْعُونَ إِلَى الْخَيْرِ وَيَأْمُرُونَ بِالْمَعْرُوفِ وَيَنْهَوْنَ عَنِ الْمُنْكَرِ وَأُولَئِكَ هُمُ الْمُفْلِحُونَ " آل عمران: 104

"और तुमसे एक गिरोह ऐसे (लोगों का भी) तो होना चाहिये जो (लोगों को) नेकी की तरफ़ बुलाए अच्छे काम का हुक्म दे और बुरे कामों से रोके और ऐसे ही लोग (आख़ेरत में) अपनी दिली मुरादें पायेंगे"

रसूल अल्लाह (:)का फरमान है तुम में से जो बुराई देखे उसे चाहिए कि उसको हाथ से परिवर्तन करें पर अगर उसे शक्ति ना हो तो अपनी जुबान से अगर इसकी शक्ति ना हो तो दिल से उसे बुरा जाने और यह कमजोर ईमान है

इस्लाम धर्म में शिक्षा लेने और देने पर प्रोत्साहित किया है

 अल्लाह का फरमान है:

"قُلْ هَلْ يَسْتَوِي الَّذِينَ يَعْلَمُونَ وَالَّذِينَ لَا يَعْلَمُونَ" الزمر آية: 9

"तुम पूछो तो कि भला कहीं जानने वाले और जाननेवाले लोग बराबर हो सकते हैं"

रसूलुल्लाह (:) का फरमान है:

" طَلَبُ الْعِلْمِ فَرِيضَةٌ عَلَى كُلِّ مُسْلِمٍ " ابن ماجة، صَحِيح الْجَامِع: 3913، صَحِيح التَّرْغِيبِ وَالتَّرْهِيب

" शिक्षा प्राप्त करना हर मुसलमान के लिए अनिवार्य है "

इस्लाम ने प्रोत्साहित किया है कि पर्यावरण और जो कुछ उसमें है इसकी सुरक्षा की जाए आप (:)की बातों और शिक्षायो ने कड़े अंदाज में डराया है कि हर वह वस्तु जिसमें इंसानों का लाभ है उसे नष्ट ना किया जाए इसलिए कि धरती की हर वस्तु तमाम इंसानों की संपत्ति है किसी जाति को छोड़कर किसी जाति के लिए खास नहीं है इसीलिए इस्लाम ने उन तमाम कामों से मना किया है जिसमें भूजल पर्यावरण को नुकसान का खतरा हो

अल्लाह का फरमान है:

"وَلَا تُفْسِدُوا فِي الْأَرْضِ بَعْدَ إِصْلَاحِهَا وَادْعُوهُ خَوْفًا وَطَمَعًا إِنَّ رَحْمَتَ اللَّهِ قَرِيبٌ مِنَ الْمُحْسِنِينَ" الأعراف 56

"(लोगों) अपने परवरदिगार से गिड़गिड़ाकर और चुपके - चुपके दुआ करो, वह हद से तजाविज़ करने वालों को हरगिज़ दोस्त नहीं रखता और ज़मीन में असलाह के बाद फसाद करते फिरो और (अज़ाब) के ख़ौफ से और (रहमत) की आस लगा के ख़ुदा से दुआ मांगो"

अल्लाह का फरमान है:

وَإِذَا تَوَلَّى سَعَى فِي الْأَرْضِ لِيُفْسِدَ فِيهَا وَيُهْلِكَ الْحَرْثَ وَالنَّسْلَ وَاللَّهُ لَا يُحِبُّ الْفَسَادَ (205) وَإِذَا قِيلَ لَهُ اتَّقِ اللَّهَ أَخَذَتْهُ الْعِزَّةُ بِالْإِثْمِ فَحَسْبُهُ جَهَنَّمُ وَلَبِئْسَ الْمِهَادُ " البقرة 205

"और जहाँ तुम्हारी मोहब्बत से मुँह फेरा तो इधर उधर दौड़ धूप करने लगा ताकि मुल्क में फ़साद फैलाए और ज़राअत (खेती बाड़ी) और मवेशी का सत्यानास करे और ख़ुदा फसाद को अच्छा नहीं समझता

और जब कहा जाता है कि ख़ुदा से डरो तो उसे ग़ुरुर गुनाह पर उभारता है बस ऐसे कम्बख्त के लिए जहन्नुम ही काफ़ी है और बहुत ही बुरा ठिकाना है"

इस्लाम ने आमंत्रित किया है कि धरती में परिश्रम किया जाए और जो कुछ उसमें है उसे जनहित में लगा दिया जाए

अल्लाह का फरमान है:

"هُوَ الَّذِي جَعَلَ لَكُمُ الْأَرْضَ ذَلُولًا فَامْشُوا فِي مَنَاكِبِهَا وَكُلُوا مِنْ رِزْقِهِ وَإِلَيْهِ النُّشُورُ" الملك آيه: 15

वही तो है जिसने ज़मीन को तुम्हारे लिए नरम ( हमवार) कर दिया तो उसके अतराफ़ जवानिब में चलो फिरो और उसकी (दी हुई) रोज़ी खाओ

इस्लाम ने आमंत्रित किया है की नशीली वस्तुओं के विरोध में युद्ध किया जाए

अल्लाह का फरमान है:

" أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُوا إِنَّمَا الْخَمْرُ وَالْمَيْسِرُ وَالْأَنْصَابُ وَالْأَزْلَامُ رِجْسٌ مِنْ عَمَلِ الشَّيْطَانِ فَاجْتَنِبُوهُ لَعَلَّكُمْ تُفْلِحُونَ" المائدة آيه: 90

" ईमानदारों शराब, जुआ और बुत और पाँसे तो बस नापाक (बुरे) शैतानी काम हैं तो तुम लोग इससे बचे रहो ताकि तुम फलाह पाओ"

इस्लाम ने आमंत्रित किया है की इज्जतो और संपत्तियों की सुरक्षा की जाए

अल्लाह का फरमान है:

"وَلَا تَقْرَبُوا الزِّنَا إِنَّهُ كَانَ فَاحِشَةً وَسَاءَ سَبِيلًا" الإسراء آيه: 32

"और (देखो) ज़िना के पास भी फटकना क्योंकि बेशक वह बड़ी बेहयाई का काम है और बहुत बुरा चलन है"

अल्लाह का फरमान है"

"وَالَّذِينَ يَرْمُونَ الْمُحْصَنَاتِ ثُمَّ لَمْ يَأْتُوا بِأَرْبَعَةِ شُهَدَاءَ فَاجْلِدُوهُمْ ثَمَانِينَ جَلْدَةً وَلَا تَقْبَلُوا لَهُمْ شَهَادَةً أَبَدًا وَأُولَئِكَ هُمُ الْفَاسِقُونَ " النور آية: 4

"और जो लोग पाक दामन औरतों पर (ज़िना की) तोहमत लगाएँ फिर (अपने दावे पर) चार गवाह पेश करें तो उन्हें अस्सी कोड़ें मारो और फिर (आइन्दा) कभी उनकी गवाही कुबूल करो और (याद रखो कि) ये लोग ख़ुद बदकार हैं"

और जो लोग बदकारी फैलाने को पसंद करते हैं उन्हें दर्दनाक अज़ाब की धमकी दी है तो फिर अनुमान लगाएं कि जो बदकारी के रास्ते बनाते हैं और उस में सहयोग करते हैं उनका परिणाम क्या होगा?

अल्लाह का फरमान है:

"إِنَّ الَّذِينَ يُحِبُّونَ أَنْ تَشِيعَ الْفَاحِشَةُ فِي الَّذِينَ آمَنُوا لَهُمْ عَذَابٌ أَلِيمٌ فِي الدُّنْيَا وَالْآخِرَةِ وَاللَّهُ يَعْلَمُ وَأَنْتُمْ لَا تَعْلَمُونَ" النور آيه: 19

"जो लोग ये चाहते हैं कि ईमानदारों में बदकारी का चर्चा फैल जाए बेशक उनके लिए दुनिया और आख़िरत में दर्दनाक अज़ाब है और ख़ुदा (असल हाल को) ख़ूब जानता है और तुम लोग नहीं जानते हो"

अल्लाह ताला ने उनके संपत्तियों के बारे में फरमाया है:

"وَلَا تَأْكُلُوا أَمْوَالَكُمْ بَيْنَكُمْ بِالْبَاطِلِ" (البقرة:188)

"और आपस में एक दूसरे का माल नाहक़ खाओ"

और अल्लाह का फरमान है:

وَأَوْفُوا الْكَيْلَ إِذَا كِلْتُمْ وَزِنُوا بِالْقِسْطَاسِ الْمُسْتَقِيمِ ذَلِكَ خَيْرٌ وَأَحْسَنُ تَأْوِيلًا " الإسراء آيه: 35

"और जब नाप तौल कर देना हो तो पैमाने को पूरा भर दिया करो और (जब तौल कर देना हो तो) बिल्कुल ठीक तराजू से तौला करो (मामले में) यही (तरीक़ा) बेहतर है और अन्जाम (भी उसका) अच्छा है"

और अल्लाह का फरमान है:

يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُوا اتَّقُوا اللَّهَ وَذَرُوا مَا بَقِيَ مِنَ الرِّبَا إِنْ كُنْتُمْ مُؤْمِنِينَ (278) فَإِنْ لَمْ تَفْعَلُوا فَأْذَنُوا بِحَرْبٍ مِنَ اللَّهِ وَرَسُولِهِ وَإِنْ تُبْتُمْ فَلَكُمْ رُءُوسُ أَمْوَالِكُمْ لَا تَظْلِمُونَ وَلَا تُظْلَمُونَ " البقرة: 278

" ईमानदारों ख़ुदा से डरो और जो सूद लोगों के ज़िम्मे बाक़ी रह गया है अगर तुम सच्चे मोमिन हो तो छोड़ दो

और अगर तुमने ऐसा किया तो ख़ुदा और उसके रसूल से लड़ने के लिये तैयार रहो और अगर तुमने तौबा की है तो तुम्हारे लिए तुम्हारा असल माल है तुम किसी का ज़बरदस्ती नुकसान करो तुम पर ज़बरदस्ती की जाएगी"

इस्लाम ने आग्रह दिलाया है कि वह काम किए जाएं जिसमें जनहित हो और उसका लाभ समाज को प्राप्त होता हो जैसे अनाथ और बेघर लोगों की देखरेख और उन पर खर्च करना

अल्लाह का फरमान है:

"وَلَا تَقْرَبُوا مَالَ الْيَتِيمِ إِلَّا بِالَّتِي هِيَ أَحْسَنُ" الإسراء آيه :34

"लेकिन इस तरीके पर कि (उसके हक़ में) बेहतर हो"

रसूल अल्लाह (:) का फरमान है:

"मैं और अनाथ की देखरेख करने वाला जन्नत में इस तरह होंगे फिर अपनी शहादत और बीच वाली उंगली को मिलाया और दोनों में कोशादगी पैदा किया"

इस्लाम ने आग्रह दिलाया है कि भूख और गरीबी के विरोध में तमाम उपलब्ध संसाधनों द्वारा जंग किया जाए

अल्लाह का फरमान है;

"فَلَا اقْتَحَمَ الْعَقَبَةَ (11) وَمَا أَدْرَاكَ مَا الْعَقَبَةُ (12) فَكُّ رَقَبَةٍ (13) أَوْ إِطْعَامٌ فِي يَوْمٍ ذِي مَسْغَبَةٍ"  البلد آيه: 12-14

"फिर वह घाटी पर से होकर (क्यों) नहीं गुज़रा

और तुमको क्या मालूम कि घाटी क्या है

किसी (की) गर्दन का (गुलामी या कर्ज से) छुड़ाना"

इस्लाम ने आग्रह दिलाया है कि दासों को मुक्ति दिलवाया जाए रसूल अल्लाह (:) का फरमान है जिसने किसी मोमिन दास को मुक्ति दिलवाया अल्लाह ताला उस दास के अंग के बदले उसके अंग जहन्नम की आग से मुक्त करेगा यहां तक कि गुप्तांग के बदले गुप्तांग मुक्त करेगा

 

 

इस्लामी नैतिकताएं सुरक्षा और शांति की ओर आमंत्रित करती है

इस्लामी नैतिकता उन तमाम बातों का आदेश देता है जिनके द्वारा एक इंसानी समाज खुशहाली की जिंदगी जी सकता है और उन तमाम मामलों को हराम घोषित करता है जो समाज शत्रुता,नफरत और घृणा की आग भड़का सकते हैं, यह इस्लामी नैतिकताएं ऐसी हैं कि अगर उनके पालन को सुनिश्चित बनाया जाए तो समाज में सुरक्षा,शांति और संतुष्टि का माहौल पैदा हो जाता है इस्लामी नैतिकताएं बहुत ज्यादा व्यापक और फैली हुई हैं उनका नियम यह है की हर वह बात या काम जो लोगों के लिए असुविधा का कारण हो वह

अनैतिक है वर्जित है और अल्लाह ताला को पसंद नहीं है और जो उससे जुड़ा हुआ होगा वह दुनिया में लोगों की नफरत और आख़िरत में अल्लाह ताला के अज़ाब का निशाना बनेगा इसका सारांश यही है कि किसी दूसरे इंसान पर बात या कार्य द्वारा अन्याय करना और उनके अधिकारों का भुगतान ना करना

अल्लाह का फरमान है:

"قُلْ إِنَّمَا حَرَّمَ رَبِّيَ الْفَوَاحِشَ مَا ظَهَرَ مِنْهَا وَمَا بَطَنَ وَالْإِثْمَ وَالْبَغْيَ بِغَيْرِ الْحَقِّ " الأعراف آيه: 33

"( रसूल) तुम साफ कह दो कि हमारे परवरदिगार ने तो तमाम बदकारियों को ख्वाह (चाहे) ज़ाहिरी हो या बातिनी और गुनाह और नाहक़ ज्यादती करने को हराम किया है'

अल्लाह ताला हदीस कुदसी में फरमाता है मेरे बंदो बेशक मैंने अत्याचार को खुद पर वर्जित कर लिया है और उसे तुम्हारे दरमियान भी वर्जित कर दिया है इसलिए तुम एक दूसरे पर अत्याचार ना करो

इस्लाम में अत्याचारी और उत्पीड़ित की समान रुप से सहायता करने का आदेश दिया है रसूल अल्लाह का फरमान है: "अपने भाई की सहायता करो चाहे वह अत्याचारी हो या उत्पीड़ित एक व्यक्ति ने पूछा हे अल्लाह के रसूल अगर वह पीड़ित हो तो मैं उसकी सहायता करूंगा लेकिन मुझे यह बताएं कि जब वह अत्याचारी हो तो मैं उसकी सहायता किस प्रकार करूं आप ने फरमाया उसे अत्याचार करने से रोककर (क्योंकि यह भी उसकी सहायता है) इसके विपरीत इस्लाम ने खुद के साथ और दूसरे के साथ हर प्रकार न्याय का आदेश दिया है

अल्लाह का फरमान है:

إِنَّ اللَّهَ يَأْمُرُ بِالْعَدْلِ وَالْإِحْسَانِ وَإِيتَاءِ ذِي الْقُرْبَى وَيَنْهَى عَنِ الْفَحْشَاءِ وَالْمُنْكَرِ وَالْبَغْيِ يَعِظُكُمْ لَعَلَّكُمْ تَذَكَّرُونَ " النحل 90

"इसमें शक़ नहीं कि ख़ुदा इन्साफ और (लोगों के साथ) नेकी करने और क़राबतदारों को (कुछ) देने का हुक्म करता है और बदकारी और नाशाएस्ता हरकतों और सरकशी करने को मना करता है (और) तुम्हें नसीहत करता है ताकि तुम नसीहत हासिल करो"

इसलिए हर मुस्लिम गैर मुस्लिम के साथ खुशी और क्रोध की हालत में न्याय अनिवार्य है अल्लाह का फरमान है:

"وَلَا يَجْرِمَنَّكُمْ شَنَآنُ قَوْمٍ عَلَى أَلَّا تَعْدِلُوا اعْدِلُوا هُوَ أَقْرَبُ لِلتَّقْوَى " (المائدة: 8)

" ईमानदारों ख़ुदा (की ख़ुशनूदी) के लिए इन्साफ़ के साथ गवाही देने के लिए तैयार रहो और तुम्हें किसी क़बीले की अदावत इस जुर्म में फॅसवा दे कि तुम नाइन्साफी करने लगो (ख़बरदार बल्कि) तुम (हर हाल में) इन्साफ़ करो यही परहेज़गारी से बहुत क़रीब है और ख़ुदा से डरो क्योंकि जो कुछ तुम करते हो (अच्छा या बुरा) ख़ुदा उसे ज़रूर जानता है"

बल्कि उससे आगे बढ़ कर इस्लाम ने बुराई का बदला नेकी (भलाई) के साथ देने का आदेश दिया है ताकि दिलों में मोहब्बत अपनाइय्यत पैदा हो और नफरत घृणा को मिटाया जा सके अल्लाह का फरमान है"

"ادْفَعْ بِالَّتِي هِيَ أَحْسَنُ فَإِذَا الَّذِي بَيْنَكَ وَبَيْنَهُ عَدَاوَةٌ كَأَنَّهُ وَلِيٌّ حَمِيمٌ" (فصلت:34)

"और भलाई बुराई (कभी) बराबर नहीं हो सकती तो (सख्त कलामी का) ऐसे तरीके से जवाब दो जो निहायत अच्छा हो (ऐसा करोगे) तो (तुम देखोगे) जिस में और तुममें दुशमनी थी गोया वह तुम्हारा दिल सोज़ दोस्त है"

 

 

निष्कर्ष

यह पुस्तिका की जिसमें बहुत ही संक्षेप के साथ इस्लाम का अंत वादा के बारे में विचारधारा रूख वर्णित है मैं मानता हूं कि इस विषय के संवेदनशील होने के कारण मैं इस का हक अदा नहीं कर सका लेकिन कुछ संकेतों का उल्लेख कर दिया गया है कि इस्लाम का अपने विरोधियों के बारे में क्या विचार धारा है और वह संपर्क जो इस्लाम को विरोधियों के साथ और विरोधियों को इस्लाम के साथ जोड़ता है वह जनहित की सीमाओं में तमाम लोगों के लिए भलाई को पसंद करना पर आधारित होता है इसलिए कि इस्लाम का सबसे मजबूत कड़ा कड़ी यह है कि अल्लाह ताला के लिए मोहब्बत की जाए और अल्लाह के लिए घृणा की जाए ना कि अपना लाभ और इच्छाओं के लिए जब आप किसी से नफरत करें तो उसकी व्यक्तित्व के कारण नहीं बल्कि अल्लाह ताला के आदेशों के पालन करने में लापरवाही और उसके वर्जित वस्तुओं को करने के कारण:

अल्लाह का फरमान है

"خُذِ الْعَفْوَ وَأْمُرْ بِالْعُرْفِ وَأَعْرِضْ عَنِ الْجَاهِلِينَ " الأعراف آية: 199

"( रसूल) तुम दरगुज़र करना एख्तियार करो और अच्छे काम का हुक्म दो और जाहिलों की तरफ से मुह फेर लो"

इस्लाम कितना सुंदर धर्म है कि यह अपनी आसमानी खुदाई शिक्षाओं के द्वारा लोगों को लोगों की इबादत पूजा से निकालकर लोगों के रब प्रभु की इबादत की ओर ले जाता है उन्हें कुफर अविश्वास और शिर्क बहुवाद के अधिकारों से निकालकर इस्लाम के प्रकाश की ओर ले जाता है अल्लाह का फरमान है:

"اللَّهُ وَلِيُّ الَّذِينَ آمَنُوا يُخْرِجُهُمْ مِنَ الظُّلُمَاتِ إِلَى النُّورِ وَالَّذِينَ كَفَرُوا أَوْلِيَاؤُهُمُ الطَّاغُوتُ يُخْرِجُونَهُمْ مِنَ النُّورِ إِلَى الظُّلُمَاتِ أُولَئِكَ أَصْحَابُ النَّارِ هُمْ فِيهَا خَالِدُونَ" البقرة آيه: 257

"ख़ुदा उन लोगों का सरपरस्त है जो ईमान ला चुके कि उन्हें (गुमराही की) तारीक़ियों से निकाल कर (हिदायत की) रौशनी में लाता है और जिन लोगों ने कुफ़्र इख्तेयार किया उनके सरपरस्त शैतान हैं कि उनको (ईमान की) रौशनी से निकाल कर (कुफ़्र की) तारीकियों में डाल देते हैं यही लोग तो जहन्नुमी हैं (और) यही उसमें हमेशा रहेंगे"

इस्लाम अपने मानने वालों को तमाम इंसानों के साथ एहसान भलाई करने का प्रशिक्षण देता है ताकि समाज में सामूहिक न्याय कायम हो और भलाई के साथ मुहब्बत कि प्रशिक्षण देता हो है ताकि सम्मान इज्जते और अधिकार सुरक्षित रहें, और माफी क्षमा की प्रशिक्षण देता है

ताकि उनके बीच मोहब्बत अपनायत और शुभकामना के भावनाएं बने रहे

और अल्लाह ताला के निर्धारित सीमाओं का सम्मान करने की प्रशिक्षण देता है, ताकि समाज में शांति पैदा हो और हर व्यक्ति की जान उसकी इज्जत और उसका संपत्ति सुरक्षित रहे, और उन्हें प्रशिक्षण देता है कि अहंकार कि मोहब्बत से ऊपर होकर दूसरों से मोहब्बत करें ताकि समाज के लोगों के बीच समानता बहाल हो, बड़ा छोटे पर नरमी और करुणा करें और छोटा बड़े का आदर सम्मान करें और धनी असहाय दरिद्र और फकीर का हाथ थाम ले, ताकि वह संपर्क बहाल हो जिसके बारे में रसूलुल्लाह ने खबर दी है

मोमिनो का उदाहरण दुष्तातं एक दूसरे के साथ मोहब्बत दया और नरमी करने में एक शरीर जैसा है जब शरीर का कोई अंग बीमार होता है तो बुखार और अनिद्रा में पूरा शरीर उसमें शामिल होता है

शायद यह पुस्तिका हक की तलाश करने वालों के लिए गाइड साबित हो

जो स्वर्ग की सफलता और अनंत नेअमतो के तलाश में है और नरक के हमेशा के सजा से खुद को बचाने इच्छुक है

मामला इसलिए भी खतरनाक है कि इस दुनिया का परिणाम अंत में नष्ट होना और मृत्यु है अगर मामला

केवल यहां तक सीमित होता तो परेशानी कम थी लेकिन उसके बाद का मामला ज्यादा भयानक है हम मुसलमान होने के कारण मौत के बाद उठाए जाने इनाम सजा और स्वर्ग या नरक को हमेशा वाली जीवन पर विश्वास रखते हैं

जो व्यक्ति ईमान लाया नेकी की तो अल्लाह ताला की दया के बाद उसकी नीकीयों का बदला उसे स्वर्ग के रूप में दिया जाएगा

और जिसने बुराई की अगर वह इंसानों के अधिकार हुए तो वह उससे वसूल किए जाएंगे और अगर वह अल्लाह ताला के अधिकार हुए तो वह उसकी मर्जी के तहत होंगे

अगर वह चाहेगा तो उसे सजा देगा और अगर चाहेगा तू उस पर दया करेगा और जिसने इस्लाम में से मुंह मोड़ा और अपने कुफ्र शिर्क पर मर गया तो हमारा विश्वास है कि वह हमेशा हमेशा के लिए नर्क में जाएगा

 

وصلى الله وسلم على المبعوث رحمة للعالمين رسولنا ونبينا محمد وعلى آله وصحبه ومن اتبع هداه وسار على نهجه إلى يوم الدين

                                                                                                                        

 

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