Question

गुनाह करने या कर्तव्यों को छोड़ने पर तक़्दीर को तर्क बनाने का हुक्म?

क्या पाप करने वाले के लिए अवज्ञा करने पर इस बात को तर्क बनाना उचित है कि अल्लाह तआला इसे उसके ऊपर मुक़द्दर (निर्णित) कर दिया था?
Answer
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हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान अल्लाह के लिए योग्य है।

कर्तव्यों के पालन में कोताही करने वाले कुछ पापी लोग अपनी कोताही और गलती पर इस बात को कारण और हुज्जत बनाते हैं कि अल्लाह तआला ने ही उन पर इस चीज़ को मुक़द्दर कर दिया था (अर्थात् उनके भाग्य में लिख रखा था); इसलिए उन्हें इस पर कोई मलामत नहीं किया जाना चाहिए।

उनका यह तर्क किसी भी हालत में ठीक नहीं है; इस बात में कोई सन्देह नहीं कि तक़्दीर पर ईमान रखना अवज्ञा (पाप) करने वाले व्यक्ति के लिए कर्तव्यों को छोड़ने, या पाप करने के लिए हुज्जत (बहाना) प्रदान नहीं करता है, इस पर मुसलमानों और बुद्धिमानों का सर्वसम्मत है।

शैखुल इस्लाम इब्ने तैमिय्या रहिमहुल्लाह फरमाते हैं : "मुसलमानों, सभी मिल्लत (धर्म) वालों और सभी बुद्धिमानों का इस बात पर इत्तिफाक़ हैं कि किसी के लिए पाप करने पर तक़्दीर को बहाना बनाना वैध नहीं ; क्योंकि अगर यह स्वीकृत होता तो हर एक के लिए संभव होता कि उसके दिल में जो आये करे : लोगों को क़त्ल करे, उनका माल छीन ले और धरती पर हर प्रकार का दंगा करे और फिर तक़्दीर को बहाना और तर्क बना ले। स्वयं तक़्दीर को बहाना और तर्क बनाने वाले को यदि आघात पहुँचाया जाये और आघात पहुँचाने वाला तक़्दीर को तर्क और हुज्जत बनाये तो यह उसकी बात को स्वीकार नहीं करेगा, बल्कि अन्तर्विरोध और प्रतिवाद पैदा हो जायेगा, और किसी बात का प्रतिवादित होना और आपस में टकराना उसके फासिद और असत्य होने का पता देता है, अत: तक़्दीर को हुज्जत और तर्क बनाने की असत्यता और व्यर्थता पूर्व बुद्धि के ही स्पष्ट है।" (मजूउल फतावा 8/179)

कर्तव्यों (वाजिबात) के छोड़ने और अवज्ञा (गुनाहों) को करने पर तक़्दीर को तर्क (बहाना) बनाने के असत्य होने पर शरीअत और बुद्धि दलालत करती है, शरई (धार्मिक) प्रमाणों में से कुछ निम्नलिखित हैं :

1- अल्लाह तआला का फरमान है : "यह मुशरेकीन कहेंगे कि यदि अल्लाह चाहता तो न हम शिर्क करते और न हमारे बाप दादा, और न हम किसी चीज़ को हराम ठहराते, इसी प्रकार जो लोग इन से पूर्व बीत चुके हैं उन्हों ने भी झुठलाया था यहाँ तक कि उन्हों ने हमारे प्रकोप का स्वाद चखा, आप कहिए क्या तुम्हारे पास कोई प्रमाण है तो उसको हमारे सामने प्रस्तुत करो, तुम लोग केवल काल्पनिक बातों के पीछे चलते हो और तुम निरा अटकल से बातें बनाते हो।" (सूरतुल अन्आम:148)

इन मुश्रिकों ने अपने शिर्क पर तक़दीर को बहाना और हुज्जत बनाया, यदि इन के लिए भाग्य को प्रमाण और तर्क बनाना स्वीकारनीय और उचित होता तो अल्लाह तआला इन्हें यातना न देता। अत: जो व्यक्ति गुनाहों और बुराईयों के करने पर तक़दीर को तर्क और बहाना बनाता है, उसके लिए अनिवार्य हो जाता है कि वह काफिरों के धर्म को ठीक ठहराये और अल्लाह तआला की ओर अत्याचार की निसबत करे, अल्लाह तआला इस से बहुत पवित्र है।

2- अल्लाह तआला का फरमान है : "हम ने उन्हें रसूल बनाया है, शुभ सूचना देने वाले और डराने वाले, ताकि लोगों का कोई तर्क रसूलों के भेजने के पश्चात अल्लाह पर न रह जाए, और अल्लाह सर्वशक्तिमान और सर्वबुद्धिमान है।" (सूरतुन-निसा: 165)

यदि गुनाहों और अवज्ञाओं पर भाग्य -तक़्दीर- को तर्क और हुज्जत (बहाना) बनाना उचित होता तो रसूलों के भेजने के पश्चात वह तर्क समाप्त न हो जाता, बल्कि वास्तव में सन्देष्टाओं के भेजने का कोई फायदा ही न रह जाता।

3- अल्लाह तआला ने बन्दे को आदेश दिया है और मनाही की है, किन्तु उसे उसी बात का आदेश दिया है जिसकी बन्दा शक्ति रखता है, फरमाया: "जहाँ तक तुम से हो सके अल्लाह से डरते रहो।" (सूरतुत-तग़ाबुन: 16) और फरमाया : "अल्लाह तआला किसी प्राणी पर उसकी शक्ति से अधिक भार नहीं डालता।" (सूरतुल-बक़रा: 286)

यदि बन्दे को अमल पर विवश किया गया होता तो वह उन आदेशों का भी पाबन्द होता जिनकी वह शक्ति नहीं रखता, और यह बात असत्य है, और यही कारण है कि यदि अनजाने में या भूल से या विवश (मजबूर) किए जाने पर उस से कोई अवज्ञा (पाप) हो जाए तो उस पर कोई द्वोष नहीं, क्योंकि वह क्षमा योग्य (मा´ज़ूर) है। और अगर यह हुज्जत उचित होती तो मजबूर और जाहिल तथा जानबूझकर इच्छा पूर्वक करने वाले के बीच कोई अन्तर न होता, जबकि वस्तुस्थिति और पूर्व बुद्धि से यह बात स्पष्ट और गोचर है कि दोनों के बीच स्पष्ट अंतर है।

4- तक़्दीर (भाग्य) अल्लाह तआला का एक गुप्त रहस्य है जिसका ज्ञान किसी प्राणी को उसके घटित होने के पश्चात होता है, और बन्दे की उस कार्य को करने की इच्छा उसके करने से पूर्व होती है, अत: उसका कार्य की इच्छा करना उसके अल्लाह तआला की तक़्दीर से अवगत होने पर निर्भर नहीं है, इसलिए उसका यह दावा करना कि अल्लाह तआला ने उस पर ऐसा और ऐसा मुक़द्दर कर रखा था, एक असत्य दावा है; क्योंकि यह परोक्ष को जानने का दावा है और परोक्ष को अल्लाह के अलावा कोई नहीं जानता, अत: उसकी हुज्जत बातिल है ; क्योंकि मनुष्य को जिस चीज़ का ज्ञान न हो वह उसके लिए हुज्जत नहीं बन सकती।

5- गुनाहों के करने पर तक़दीर को हुज्जत व तर्क बनाने से, शरीअतों (शास्त्रों) हिसाब-किताब, क़ियामत, पुण्य और दण्ड को स्थगित और निरर्थक ठहरा देना निष्कर्षित होता है।

6- यदि तक़्दीर, गुनाह करने वालों के लिए तर्क होता तो नरकवासी उस समय इस को तर्क व हुज्जत बनाते जब वे जहन्नम को देखें गे और उन्हें उसमें दाखिल होने का गुमान हो जायेगा, और इसी तरह जब वे उसमे प्रवेष करेंगे और उनको डाँट-डपट और धिक्कार किया जायेगा। लेकिन वास्तव में उन्हों ने तक़दीर को तर्क नहीं बनाया, बल्कि जैसाकि अल्लाह अज़्ज़ा व जल्ल ने उनके बारे में फरमाया है कि वे कहेंगे : "हे हमारे रब! हमें बहुत थोड़े निकट समय तक का ही अवसर प्रदान कर दे कि हम तेरा निमन्त्रण मान लें और सन्देष्टाओं की पैरवी में लग जायें।" (सूरत इब्राहीम :44) और वे कहें गे कि : "हे महारे रब! हमारी बदनसीबी हम पर गालिब हो गयी।" (सूरतुल मोमिनून :106) और वे कहें गे : "अगर हम सुनते होते या समझते होते तो नरकवासियों में (शामिल) न होते।" (सूरतुल मुल्क :10) और : "वे कहेंगे कि हम नमाज़ी न थे।" ((सूरतुल मुद्दस्सिर :43) इसके अतिरिक्त अन्य बातें जो वे कहें गे।

यदि गुनाहों के करने पर तक़दीर को हुज्जत और तर्क बनाना उचित होता तो वे अवश्य उसे हुज्जत और बहाना बनाते ; क्योंकि उन्हें ऐसी चीज़ की सख्त आवश्यकता होगी जो उन्हें जहन्नम की आग से बचा सके।

7- अगर तक़्दीर के द्वारा हुज्जत पकड़ना उचित होता तो यह इब्लीस के लिए हुज्जत और तर्क होता जिस ने कहा था : "उस (इबलीस) ने कहा, तेरे मुझे पथभ्रष्ट कर देने के कारण मैं उनके लिए तेरे सीधे मार्ग पर बैठूँ गा।" (सूरतुल आराफ :16) और अल्लाह का दुश्मन फिर्औन तथा अल्लाह से बात करने की प्रतिष्ठा से सम्मानित मूसा अलैहिस्सलाम बराबर हो जाते।

8- इस तत्व से भी इस कथन का खण्डन होता और इस का असत्य होना स्पष्ट होता है कि : हम देखते हैं कि मनुष्य अपने दुनिया के मामले में उन चीज़ों का इच्छुक और अभिलाषी होता है जो उसके अनुकूल होती हैं यहां तक कि उन्हें प्राप्त कर लेता है, और आप किसी ऐसे आदमी को नहीं पायेंगे जो अपने दुनिया के मामलों को सुधारने वाली चीज़ों को छोड़ कर उसे नुक़सान पहुँचाने वाली चीज़ों को अपना ले और तक़दीर को बहाना बनाये। तो फिर वह धर्म के लिए लाभदायक चीज़ों को छोड़ कर हानिकारक चीज़ों को क्यों अपनाता है और फिर भाग्य को हुज्जत (बहाना) बनाता है?!

इस मस्अला को अधिक स्पष्ट करने के लिए एक उदाहरण प्रस्तुत है:

यदि मनुष्य के सामने दो मार्ग हों : एक वह मार्ग जो उसे ऐसे नगर तक पहुँचाने वाला हो जहाँ दुर्व्यवस्था और अनारकी उदाहरण स्वरूप हिंसा व हत्या, लूट मार, भर्त्सना, भय व डर और अकाल फैला हुवा हो।

और दूसरा मार्ग वह है जो उसे ऐसे नगर तक ले जाने वाला हो जहां पूर्ण व्यवस्था, सम्पूर्ण शान्ति और सुरक्षा, सौभाग्य जीवन और प्राण, धन तथा सतीत्व (इज़्ज़त) का आदर और सम्मान स्थापित हो, तो वह कौन सा मार्ग चयन करेगा ?

वह नि:सन्देह यही दूसरा मार्ग चयन करेगा जो उसे व्यवस्था और शान्ति वाले नगर तक पहुँचाने वाला है, किसी बुद्धिमान के लिए कदापि यह सम्भव नहीं है कि वह दुर्व्यवस्था और भय व अशान्ति वाले नगर का मार्ग अपनाए, और भाग्य को हुज्जत बनाये, तो फिर वह आखिरत के मामले में स्वर्ग का मार्ग छोड़ कर नरक का मार्ग क्यों अपनाता है और फिर भाग्य को हुज्जत बनाता है?

9- तक़दीर को हुज्जत और तर्क बनान वाले का खण्डन -उसके अपने मत के अनुसार- इस प्रकार भी किया जा सकता है कि उस से कहा जाये : तू शादी न कर, क्योंकि अगर अल्लाह तआला ने तेरे भाग्य में बच्चा लिख रखा होगा तो वह अवश्य आयेगा, और अगर तेरे भाग्य में बच्चा नहीं होगा तो कदापि तेरे बच्चा नही होगा। तथा तू खाना खा न पानी पी, क्योंकि अगर अल्लाह तआला ने तेरे लिए पेट भरना और सेराब होना मुक़द्दर किया होगा तो ऐसा अवश्य होगा, अन्यथा कभी नहीं होगा। और अगर कोई हानिकारक दरिन्दा तुझ पर आक्रमण करे तो तू उस से मत भाग, क्योंकि अगर अल्लाह ने तेरे लिए नजात और बचाव मुक़द्दर किया होगा, तो तू अवश्य बच जायेगा और अगर उस ने तेरे लिए बचाव का फैसला न किया होगा, तो भागना तुझे लाभ नहीं देगा। और अगर तू बीमार पड़ जाये तो इलाज न कर, क्योंकि अगर अल्लाह तआला ने तेरे लिए स्वास्थ्य मुक़द्दर किया होगा, तो तू स्वस्थ हो जायेगा, वर्ना दवा तुझे कदापि लाभ नहीं पहुँचायेगी।

क्या वह व्यक्ति हमारी इस बात को स्वीकार करेगा? यदि वह हमारी बात को मान लेता है तो हमें उसकी बुद्धि के अशुद्ध होने का पता चल गया, और अगर उसने हमारी बात का विरोध किया तो हमें उसके कथन के व्यर्थ और उसकी हुज्जत के असत्य होने का पता चल गया।

10- गुनाहों के करने पर तक़दीर को हुज्जत और बहाना बनाने वाला अपने आप को पागलों और बच्चों के समान ठहराता है, जो कि मुकल्लफ (शरई आदेशों के प्रतिबद्ध) नहीं हैं, और न ही उन पर उनकी पकड़ होती है, लेकिन अगर इस आदमी से दुमिनया के मामलों में उन्हीं लोगों जैसा व्यवहार किया जाये तो वा इसे पसंद नहीं करेगा।

11- यदि हम इस बातिल हुज्जत को स्वीकार कर लें, तो क्षमायाचना, तौबा, दुआ, जिहाद, भलाई का हुक्म देने और बुराई से रोकने की कोई आवश्यकता नहीं रह जायेगी।

12- अगर बुराईयों और गुनाहों पर तक़दीर हुज्जत और तर्क होती तो लोगों के हित निरस्त हो जाते और दुर्व्यवस्था फैल जाती, तथा दंड संहिता और सज़ा के नियमों का कोई मायना नहीं रह जाता, क्योंकि दोषी व्यक्ति तक़दीर को हुज्जत और बहाना बनायेगा। ज़ालिमों और डाकुओं के लिए सज़ायें निर्धारित करने, न्यायालयों को खोलने और न्याय को स्थापित करने की हमें कोई आवश्यकता नही होती, क्योंकि जो कुछ भी हुआ है, वह अल्लाह की तक़दीर से हुआ है। इस बात को कोई भी बुद्धि वाला आदमी स्वीकार नहीं कर सकता।

13- तक़दीर के द्वारा हुज्जत पकड़ने वाला जो कहता है कि : हमारी पकड़ नहीं होनी चाहिए, इसलिए कि अल्लाह तआला ने इसे हमारे ऊपर लिख दिया है, फिर एक ऐसी चीज़ पर हमारी पकड़ क्यों होती है जो हमारे ऊपर लिख दी गयी है?

तो ऐसे आदमी से कहा जायेगा : पिछली लिखी हुई चीज़ पर हमारी पकड़ नहीं होगी, बल्कि जो कुछ हम ने किया है और कमाया है उस पर हमारी पकड़ होगी, हमें उस चीज़ का आदेश नही दिया गया है जो हमारे लिए अल्लाह तआला ने मुक़द्दर किया है या हमारे ऊपर लिख दिया है, बल्कि हमें उस चीज़ को करने का हुक्म दिया गया है जिसका अल्लाह तआला हमें आदेश देता है, अत: इन दोनों बातों में अंतर है जो हम से मुतालबा किया गया है और जो हमारे साथ चाहा गया है, अल्लाह ने हमारे साथ जो चाहा है वह हम से गुप्त रखा है, और जिस चीज़ का हम से मुतालबा किया किया है, उसके करने का हमें आदेश दिया है।

रही यह बात कि अल्लाह तआला अनादि काल और प्राचीन ही से यह ज्ञान रखता है कि ऐसा होगा फिर उसे लिख दिया है, इस में कोई हुज्जत और तर्क नहीं है ; क्योंकि उसके व्यापक सर्वव्यापी ज्ञान की यह अपेक्षा ही है कि वह इस बात को जानता है कि उसकी पैदा कि हुई सृष्टि क्या करने वाली है, और इस में किसी भी प्रकार की कोई जब्र (बाध्य करना) नहीं है, वस्तुस्थिति से इस का उदाहरण –और अल्लाह के लिए तो सर्वोच्च उदाहरण है- यह है कि : यदि कोई अध्यापक अपने किसी विद्यार्थी की हालत से यह जान ले कि वह अपनी गंभीर कोताही और सुस्ती के कारण इस साल पास नहीं होगा, फिर वह विद्यार्थी पास नहीं होता है जैसाकि अध्यापक को इसका ज्ञान था, तो क्या कोई बुद्धिमान आदमी यह कहेगा कि अध्यापक ने उसे फेल होने पर मजबूर किया है, या विद्यार्थी के लिए यह कहना सहीह होगा कि मैं इस लिए पास नहीं हुआ कि इस अध्यापक को ज्ञात था कि मैं पास नहीं हूँगा ?!

सारांश यह कि गुनाहों के करने, या नेकियों के छोड़ने पर तक़दीर को तर्क (बहाना और हुज्जत) बनाना शरीअत, बुद्धि और वस्तुस्थिति की रू से एक व्यर्थ और असत्य हुज्जत है।

इस बात की ओर संकेत करना उचित है कि इन में से अधिकांश लोगों का (तक़दीर के द्वारा) हुज्जत पकड़ना संतुष्टि और विश्वास के कारण नहीं होता है, बल्कि वह मात्र एक प्रकार के मन की इच्छा और हठ की पैदावार होता है, इसीलिए कुछ उलमा ने ऐसे व्यक्ति के बारा में कहा है : "तू आज्ञा पालन के वक़्त क़दरी (तक़दीर का इंकार करने वाला) होता है, और नाफरमानी के समय जबरी (जब्र का क़ाईल) हो जाता है, जो भी मत तेरी इच्छा के मुताबिक़ होता है तू उसको अपना लेता है।" (मजमूउल फतावा 8/107) अर्थात् जब वह नेकी का काम करता है तो उसे अपनी तरफ मंसूब करता है और इस बात का इंकार करता है कि अल्लाह तआला ने उसे मुक़द्दर किया थाय, और जब अवज्ञा करता है तो तक़दीर को बहाना बनाता है।

शैखुल इस्लाम इब्ने तैमिय्या रहिमहुल्लाह ने तक़दीर के द्वारा हुज्जत पकड़ने वाले के बारे में फरमाया है कि : "ये लोग यदि इस एतिक़ाद पर अटल रहें तो ये यहूदियों और ईसाईयों से भी बढ़ कर काफिर हैं।" (मजमूउल फतावा 8/262)

अत: बन्दे के लिए उचित नहीं है कि वह अपनी बुराईयों और नाफरमानियों पर तक़दीर को तर्क बनाये।

तक़दीर के द्वारा हुज्जत पकड़ना केवल उन दुर्घटनाओं और मुसीबतों के समय उचित है जिन से मनुष्य पीड़ित होता है जैसे निर्धनता, बीमारी, किसी क़रीबी की मृत्यु, खेती का नष्ट हो जाना, सम्पत्ति का घाटा होना, गलती से किसी की हत्या कर देना और इन्हीं के समान अन्य चीज़ें, तो यह अल्लाह तआला को रब मानने पर संपूर्ण प्रसन्नता में से है, इसलिए तक़दीर को तर्क बनाना मुसीबतों पर होता है, बुराईयों पर नहीं। "अत: सौभाग्यशाली बुराईयों से क्षमायाचना करता है और मुसीबतों पर धैर्य करता है, जैसाकि अल्लाह तआला का फरमान है : "अत: आप धीरज से काम लें, नि:सन्देह अल्लाह का वादा सच्चा है, और अपने गुनाह की क्षमा याचना कीजिये।" और अभागा व्यक्ति मुसीबतों के समय वावेला मचाता है, और बुराईयों पर तक़दीर को बहाना बनाता है।"

इसका स्पष्टीकरण इस उदाहरण के द्वारा होता है : अगर एक आदमी तेज़ रफतार से अपनी गाड़ी चलाये और सुरक्षित वाहन चालन के साधनों में कोताही से काम ले जिसके कारण दुर्घटना ग्रस्त हो जाये, फिर इस पर उसे डांट-डपट किया जाये और उस से पूछताछ किया जाये तो तक़दीर को हुज्जत और तर्क बनाये, तो उसकी हुज्जत स्वीकार नहीं की जायेगी, जबकि दूसरी तरफ अगर किसी की गाड़ी टकरा जाये जबकि वह अपनी जगह में थी वहाँ से हिली नहीं थी, फिर कोई आदमी उसको बुरा-भला कहे तो वह तक़दीर को हुज्जत बनाये तो उसकी हुज्जत स्वीकार की जायेगी, सिवाय इसके कि उसने गाड़ी को गलत तरीक़े से पार्क किया हो।

कहने का उद्देश्य यह है कि जो कुछ बन्दे की अपनी क्रिया और विकल्प से हुआ है उसमें उसके लिए तक़दीर को बहाना और तर्क बनाना ठीक नहीं है, और जो कुछ उसके अपने अधिकार और इच्छा से बाहर है तो उसमें उसके लिए तक़दीर को हुज्जत बनाना ठीक है।

इसीलिए आदम अलैहिस्सलाम, मूसा अलैहिस्सलाम पर हुज्जत में गालिब आ गये जैसाकि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के उन दोनों के बहस से संबंधित इस फरमान में है : "आदम और मूसा अलैहिमस्सलाम ने बहस किया, तो मूसा अलैहिस्सलाम ने उन से कहा : आप वह आदम हैं जो अपने पाप के कारण स्वर्ग से निकाले गये। इस पर आदम अलैहिस्सलाम ने उन से कहा : आप वह मूसा हैं जिन्हें अल्लाह तआला ने अपने संदेश को पहुँचाने और अपनी बात-चात के लिए चुना, फिर आप मुझे एक ऐसी बात पर मलामत करते हैं जो मेरे पैदा किये जाने से पूर्व ही मेरे ऊपर मुकद्दर कर दी गई थी? चुनाँचि आदम अलैहिस्सलाम बहस (हुज्जत) में मूसा अलैहिस्सलाम पर गालिब आ गये।" (मुस्लिम हदीस संख्या :2652)

आदम अलैहिस्सलाम ने गुनाह पर तक़दीर को हुज्जत नहीं बनाया जैसाकि हदीस में विचार न करने वाले ऐसा गुमान करते हैं, और मूसा अलैहिस्सलाम ने आदम अलैहिस्सलाम को गुनाह पर मलामत नहीं किया है ; क्योंकि वह जानते थे कि आदम अलैहिस्सलाम ने अपने रब से क्षमा गांग लिया और तौबा कर लिया था, और आप के रब ने आप को चुन लिया, आप की तौबा को स्वीकार कर लिया और आप का मार्गदर्शन किया, और गुनाह से तौबा करने वाला उस व्यक्ति के समान हो जाता है जिसने कोई गुनाह ही न किया हो।

यदि मूसा अलैहिस्सलाम ने आदम अलैहिस्सलाम को गुनाह पर मलामत किया होता तो वह जवाब देते कि : मैं ने गुनाह किया तो तौबा कर लिया और अल्लाह ने मेरी तौबा को स्वीकार किया, और वह यह भी कहते कि : ऐ मूसा! आप ने भी तो एक जान को क़त्ल किया था, और (अल्लाह के आदेश पर आधारित) तख्तियों को फेंक दिया था, इत्यादि। मूसा अलैहिस्सलाम ने मुसीबत के द्वारा हुज्जत पकड़ा था, तो आदम अलैहिस्सलाम तक़दीर के द्वारा हुज्जत पकड़ कर उन पर गालिब हो गये। (देखिये : अल-एहतिजाज बिल-क़द्र लि-शैखिल इस्लाम इब्ने तैमिय्या पृ0 18-22)

"जो मुसीबतें मुक़द्दर कर दी गयी हैं उनको स्वीकारना और उनके सामने अपने आप को समर्पित करना अनिवार्य है; क्योंकि यह अल्लाह के रब होने पर संपूर्ण रूप से प्रसन्नता में से है, जहाँ तक गुनाहों का संबंध है तो किसी के लिए भी गुनाह करने का अधिकार नहीं है, और जब कोई गुनाह कर बैठे तो उसके ऊपर तौबा और इस्तिग़फार करना अनिवार्य है, अत: वह बुराईयों से तौबा करे और मुसीबतों पर सब्र करे।" (शरहुत्तहाविय्या पृ0 147)

चेतावनी :

कुछ विद्वानों ने उल्लेख किया है कि जिन लोगों के लिए तक़दीर के द्वारा हुज्जत पकड़ना वैध है उन्हीं में से एक गुनाह से तौबा कर लेने वाला आदी है, अगर कोई आदमी उसे किसी ऐसे गुनाह पर मलामत करे जिस से उसने तौबा कर लिया है तो उसके लिए तक़दीर के द्वारा हुज्जत पकड़ना जाईज़ है।

अगर किसी तौबा कर लेने वाले से कहा जाये : तू ने ऐसा और ऐसा क्यों किया है? फिर उस ने जवाब दिया कि : यही अल्लाह की तक़दीर और उसका फैसला था, और मैं ने तौबा और इस्तिग़फार कर लिया है, तो उसकी यह हुज्जत स्वीकार की जायेगी, क्योंकि गुनाह उसके हक़ में एक मुसीबत बन चुकी है और उसने अपनी कमी और कोताही पर तक़दीर से हुज्जत नहीं पकड़ी है, बल्कि वह उसे उस मुसीबत पर हुज्जत बना रहा जिस से वह पीड़ित हुआ है, और वह अल्लाह की नाफरमानी है, और इस में कोई शक नहीं कि नाफरमानी एक मुसीबत है। तथा तक़दीर को यहाँ पर हुज्जत उस वक़्त बनाया गया है जब कि वह काम होकर समाप्त हो चुका है और उसके करने वाले ने अपनी ज़िम्मदारी को स्वीकार कर लिया और अपने गुनाह का इक़रार कर लिया है। अत: किसी के लिए वैध नहीं है कि गुनाह से तौबा करने वाले को मलामत करे, क्योंकि अंतिम समय की संपूर्णता का ऐतिबार होता है, शुरूआत की कमी का नहीं। और अल्लाह ही सवश्रेष्ठ ज्ञान रखता है।

देखिये : (आ´लामुस्सुन्नह अल-मन्शूरह पृ0 147) , (शैख अब्दुर्रहमान अल-महमूद की किताब "अल-क़ज़ा वल-क़द्र फी ज़ौइल किताबि वस्सुन्नह") , (शैख मुहम्मद अल-हमद की किताब "अल-ईमान बिल-क़ज़ा वल-क़द्र") और (शैख सुलैमान अल-खराशी की किताब "तुर्की अल-हमद फी मीज़ाने अहलिस्सुन्नह")  जिस में उन्हों ने उपर्युक्त दोनों किताबों से क़द्र के अध्याय में अहलुस्सुन्नह के अक़ीदा को सारांश के साथ उल्लेख किया है।

इस्लाम प्रश्न और उत्तर